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आलोच्य कविता का सामूहिक परिवेश
रूप में अभिव्यक्त हुई है । कवि प्रभु के अनन्तसौन्दर्य का वर्णन करता, उसी में अभिभूत हो अपने को उनके चरण कमलों में स्थान देने की महत्य प्रार्थना करता हुआ कहता है-
το
" पेसो सखी चन्द्रप्रभ मुख चंद्र |
सहस किरण सम तन की आभा देखत परमानंद ॥ १ ॥ समवसरण शुभ भूति विभूति सेव करत मत इंद्र | महासेन -कुल-कंज दिवाकर जग गुरु जगदानंद || २ || मन मोहन मूरति प्रभु तेरी, में पायो परम मुनिद । श्री शुभचद्र कहे जिनजी, मोकू राखो चरन राजमती के बहाने कवि का भक्त हृदय परमात्मा के विरह में अमीम व्यथा अनुभव करता है । मिलन की उत्कंठा और व्यग्रता का एक चित्र प्रस्तुत
अरविन्द || ३ ||
१
है
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" कोन सखी सुध लावे, श्याम की ॥
कोन सखी सुघ लावे ॥ मधुरी ध्वनि मुख चंद्र विराजित ।
राजमति गुण गावे ॥ १ ॥ अंग विभूषण मनिमय मेरे ।
मनोहर माननी पावे ॥
करो कछू तंतमंत मेरी सजनी ।
मोहि प्राननाथ मिलावे || २ || "
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शुभचंद्र भट्टारक की अधिकांश रचनाएं ऐसी हैं जिनमें हिन्दी - गुजराती और किन्तु उनके स्फुट पद वास्तव में
व्रजभाषा की बड़ी सुन्दर श्रुति
अपभ्रंश का मिलाजुला रूप दृष्टिगत होता है । भाव एवं भाषा की दृष्टि से अत्यन्त उत्कृष्ट है । उनमें मधुर एवं संगीतात्मक पदावली समुपलब्ध होती है । ब्रद्म जयसागर : (सं० १५८० - १६५५ )
का संबंध
ये ब्रह्मवारी थे और भट्टारक रत्तकीति के प्रमुख गिप्यों में ते थे । इन(गुजरात ) से विशेष रहीं । इनका सभय संवत् १५८० से १६५५ तक का जाना है । २
१ नाथूराम प्रेमी कृत जैन साहित्य और इतिहास, दृ० ३९३
२ श्री कस्तुरचंद कासलीवाल संपा० हिन्दी पद संग्रह, पृ० २६८ - ३००