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________________ जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता ३०७ वारहमासा : वारहमासों की परंपरा भी पर्याप्त प्राचीन है। संस्कृत और प्राकृत में षड्ऋतु वर्णन के रूप में इसकी परंपरा देख सकते हैं। अपभ्रंश में तो अनेक 'वारहमासा' रचनाएं लिखी गई हैं । 'वीसलदेव-रासो' तथा 'नेमिनाथ-चतुष्पदिका' प्रारम्भिक वारहमासा काव्य हैं। यह ऋतु काव्य का ही एक प्रकार है, जिसमें बारह महीनों के ऋतु-परिवर्तन एवं विरह भाव को अभिव्यक्त किया जाता है। अपने चिर परिचत नायक-नायिका को सवोधित कर वारहमासों के आहार-विहार, खानपान, उत्सव, प्रकृति आदि के वर्णन इसमें गूथ जाते हैं। फागु की तरह यह भी गेय काव्य-प्रकार है। इसे लोक काव्य का ही एक प्रकार कहा जा सकता है। गुजराती, हिन्दी और राजस्थानी में १६वीं, १७वी, शती से बारहमासे मिलते है । १७वीं, १८वीं, तथा १९वीं शती में वारहमासे खूब लिखे गये । इन सब का प्रधान विषय नायिका का पति वियोग में विरह - दुःख का अनुभव करना और उसे अभिव्यक्त करना है । अधिकांश बारहमासे २२वें तीर्थकर नेमीनाथ और राजमती से संबंधित हैं । कुछ ऋषभदेव, पार्श्वनाथ, स्थूलिभद्र, आदि के सम्बन्ध में भी रचे गये हैं। बारहमासा वर्ष के किसी भी महीने से प्रारम्भ हो जाता। सामान्यतः पति के वियोग के पश्चात् ही इसका प्रारम्भ महीने को लेकर किया जाता है। किसी ने आषाढ़ तो किसी ने मिगसर या फाल्गुन से ही वर्णन आरम्भ कर दिया है। साधारणतः प्रत्येक महीने का वर्णन होने से इसमें १५ से २० पद्य होते हैं । पर कई बारहमासे बड़े भी हैं, जिनकी पद्य संख्या ५० से १०० तक जाती है। ऋतु वर्णन एवं विरह वर्णन की दृष्टि से इन बारहमासों का बड़ा महत्वपूर्ण स्थान है । इनमें आश्रयभूता कोई विरहिणी नायिका बारह-महीनों की चित्र विचित्र प्रकृतिगत अनेक उद्दीपनों से व्यथित होकर आलंवनभूत किसी नायक के सम्बन्ध में अपनी व्यथित दशा का वर्णन करती है। जहां आलम्बन के प्रति माश्रय का कोई संदेश रहता है, वहां विप्रलंम की अनेक अवस्थाओं का वर्णन भी दिया जाता है। इस प्रकार के बारहमासों का मुख्य रस शृगार है। वर्ष के अन्त में नायक नायिक का मिलन बताया जाता है। इस प्रकार विप्रलंभ के साथ संयोग शृंगार का भी निरूपण हो जाता है । ऋतु एवं विप्रलंभ शृंगार-प्रधान गीति-काव्य के ही रूप में बारहमासों का महत्व है, यद्यपि कुछ बारहमासों में उपदेश देने का भी प्रयत्न किया गया है। - -
SR No.010190
Book TitleGurjar Jain Kavio ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHariprasad G Shastri
PublisherJawahar Pustakalaya Mathura
Publication Year1976
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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