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पद्मलदेवी ने कहा।
"आपसे भी तो विनती की थी। मगर आपने मेरी विनती की ओर ध्यान ही नहीं दिया था।" पुजारीजी बोले।
"सो भी याद है?" चामलदेवों में पुजासजी की ओर देखा।
उसी बात की धुन में पता नहीं कौन-कौन-सी पुरानी बातों की याद आती गयीं। कोई सिलसिला नहीं था। इसलिए स्थपति जकणाचार्य ने कहा, "मुझे रेविमय्या से सारा वृत्तान्त सुनने की इच्छा हो रही है। एक व्यक्ति को यदि कुछ बनना हो तो क्या सब अनुभव होना चाहिए यह उससे मालूम पड़ेगा, ऐसा लगता है।"
___ "मैं तो सब कह दूँगा। पर आपको भी खुले दिल से अपना किस्सा सुनाना होगा।' रेविमय्या ने कहा।
"मैं एक छोटा शिल्पी हूँ। मेरी कहानी से किसका क्या प्रयोजन होगा? और फिर मैंने सब कुछ पट्टमहादेवीजी से निवेदन कर दिया है और अपने दिल का बोझ उतार दिया है। एक संयमी जीवन से इस सनकी व्यवहार वाले की क्या तुलना?" स्थपति ने कहा।
"सबके जीवन में एक न एक मानवीय मूल्य छिपा रहता है। किसी से कुछ भो सम्बन्ध न रखनेवाले तुगा के किस्से से एक अनमोल बात मिल सकती हो तो एक महान् शिल्पी होने के नाते आपके जीवन का वृत्तान्त दुनिया को मालूम होना ही चाहिए। कहिए।" शान्तलदेवी ने कहा।
'अब यहीं बैटे रहने पर भोजन का समय हो जाएगा।'' पुजारी ने कहा।
सबने ऊपर आसमान की ओर देखा। सूरज आसमान के बीचोंबीच दीख पड़ा। अब तक वहीं ठीक आसमान के नीचे बैठे रहने पर भी किसी को न तो गर्मी ही लगी, न समय का पता ही चला।
"तो?'' पट्टमहादेवी ने कहा।
"दोपहर बाद छोटे पहाड़ पर चलेंगे। पूर्णिमा भी नजदीक है । चाँदनी भी रहेगी। कुछ देर तक बैठ जाएँ तो कोई हर्ज नहीं। देर से लौटेंगे तो भी चिन्ता न रहेगी।" शान्तलदेवी ने कहा।
"शाम के भोजन के लिए?" पुजारी ने कहा।
"भोजन के पश्चात् पहाड़ पर चढ़ेंगे। शाम को भोजन न भी किया तो भी कोई हर्ज नहीं।" शान्तलदेवी ने कहा।
पहाड़ से उतरकर सब अपने मुकाम पर पहुंचे। महावीर जयन्ती पर विशेष भोजन तैयार था। भोजनोपरान्त थोड़ी देर विश्राम कर, जब सूर्य ढलने लगा तो सभी कदवप्र पर चढ़े। वृद्ध पुजारी भी साथ रहे। वहाँ की चन्द्रगुप्त बदि और चामुण्डराय बसदि का दर्शन कर, बाद में दूर स्थित गोम्मट स्वामी के ठीक सामने आकर सब लोग
50 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार