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आपने जो कहा था, उसे हमने सन्निधान से निवेदन किया है। अब आप स्वयं अपनी बात को स्पष्ट रूप से निवेदन कर सकते हैं।"
केसरिश्रेष्ठी ने अपने बेटे की ओर देखा। वह उठ खड़ा हुआ। झुककर प्रणाम किया, और निवेदन किया, "महासन्निधान ने हमें राजमहल में बुलवाकर यह सुयोग दिया, इसके लिए मैं अपनी तरफ से, और अपने माता -1 -पिता की ओर से भी, कृतज्ञता प्रकट करता हूँ। अपने घराने की भक्ति के स्मारक चिह्न के रूप में एक शिव मन्दिर इस राजधानी में बनवाना चाहता हूँ। उसका वास्तुशिल्प वैशिष्ट्यपूर्ण होना चाहिए, यह हमारे बुजुर्गों की अभिलाषा है। इसके लिए हमने एक शिल्पी से प्रार्थना की है कि हमें एक मन्दिर की रूपरेखा बनाकर दें। उन्होंने एक चित्र बनाकर दिया है । परन्तु उसमें युगल मन्दिर रूपित हैं, और उनमें दो शिवलिंगों की प्रतिष्ठा करनी है। महासन्निधान के नाम पर इस ईश्वर-मन्दिर को बनवाने का संकल्प था। परन्तु शिल्पी ने युगल मन्दिर की सलाह दी हैं, इसलिए पोय्सल महाराज और पट्टमहादेवीजी के नामों को संयुक्त करके पोय्सलेश्वर के अभिधान से अभिहित करने की अनुमति प्रदान करें। और तालाब के दक्षिण पश्चिम वाले स्थान को मन्दिर निर्माण के लिए हमें दिलवाएँ।"
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'वह रेखाचित्र यहाँ है ?" बिट्टिदेव ने पूछा।
केतमल्ल ने चित्रों का पुलिन्दा प्रस्तुत किया। बिट्टिदेव ने पुलिन्दे को खोलकर देखा और उसे शान्तलदेवी के हाथ में देते हुए प्रश्न किया, "यह वेलापुरी के मन्दिर का अनुकरण है म ?**
शान्तलदेवी ने उसे देखा और कहा, "हाँ परन्तु इसमें कुछ बारीक काम है। इस युगल मन्दिर को कल्पना में कुछ नवीनता है।" फिर पूछा, "इसे बनाने वाले शिल्पी कौन है ?"
"उनका नाम है हरीश । "
" ओडेयगिरि के ?" शान्तलदेवी ने सवाल किया।
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"हाँ उन्हें वेलापुरी जँची नहीं, यह सुनने में आया । इसलिए वैष्णवालय से शिवालय जैच जाएगा, यह उनकी भावना थी, यह भी सुनने में आया। सुना कि किसी ने हमारी योजना उन्हें बतायी होगी अतः वे स्वयं यहाँ चले आये और कहा 'हम बना कर देंगे ।" केतमल्ल ने कहा ।
" वे यहाँ हैं ?" शान्तलदेवी ने पूछा ।
"नहीं।
क्यों ?"
इस ज्येष्ठ बदी और आषाढ़ की समाप्ति के बीच यहाँ आएँगे ।
"होते तो उनसे भी मिल सकते थे।"
" हुक्म हो तो उनके आते ही ले आऊँगा ।"
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'अभी तो महासन्निधान यादवपुरी की तरफ रवाना हो रहे हैं। उनके लौटने के
96 :: पट्टमहादेवी शान्तला भाग चार