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राजकुमार के भविष्य के सम्बन्ध में अब कोई चिन्ता नहीं। अच्छा मुहूर्त देखकर चल देंगे।" तिरुवरंगदास ने कहा।
रानी लक्ष्मीदेवी यादवपुरी चली गयी। उसके जाने के पहले तिरुबरंगदास आचार्यजी का सन्दर्शन करने अकेला गया। उसने स्वयं ही कहा, "आचार्यजी, मुझे क्षमा करें। लक्ष्मी ने आचार्यजी के समक्ष जिस तरह बात की उसका मैं ही कारण हूँ। मैंने उससे कहा था कि यह विवाह आचार्यजी की अभिलाषा का फल है।" और हाथ जोड़कर उसने आचार्यजी को साष्टांग प्रणाम किया।
"दास! हम संन्यासी हैं। हमारे मन में ऐसी अभिलाषा उत्पन्न होती ही नहीं, कम-से-कम तुमको इतना तो समझना चाहिए था। जो लोग यह सुनेंगे वे हमारे प्रति किस तरह की राय बनाएँगे? लक्ष्मी एक भोली-भाली नारी है। उसे अपने पद के अनुरूप अभी व्यवहार करना भी नहीं आता। तुम वृद्ध हो, कम-से-कम उसे समझाबुझाकर राजमहल को शान्ति भंग होने न दोगे, यही हमारा विश्वास था। अपने इन कामों से तुम हमारे शिष्य कहलाने के योग्य नहीं हो। स्नेह, प्रेम आदि में जहर घोलकर फूट डालना भर जानते हो! तुम्हारे ये काम हमारे लिए बहुत दुःख का कारण बने हैं। तुम्हें शिष्य कहने में अब हमको लज्जा आती है। मुझसे तुम झूठ बोल सकते हो, दुनिया की आँखों में भी धूल झोंक सकते हो, पर कल परमात्मा के सामने क्या जवाय दोगे? अब तुम्हारी सारी गलतियों के लिए हमें जिम्मेदार होना होगा, ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो गयी है। हम पर अपार प्रेम रखने वाले महाराज और पट्टमहादेवीजी को तुम्हारी इन कार्रवाइयों से जो दुःख होगा, वह सब हम पर उतरेगा। हमें लग रहा है कि इस विवाह की स्वीकृति देकर हमने बहुत ही भयंकर गलती की। कम-से-कम अब आगे विवेक से काम लेना सीख लो तो अच्छा। तुम्हारी प्रवृत्ति कुत्ते की पूँछ कीसी ही बनी रही तो परिणाम क्या होगा, सो कहा नहीं जा सकता। हमने अभी तक महाराज से या पट्टमहादेवीजी से तुम्हारे आचरणों के बारे में गम्भीर चर्चा नहीं की है। अब जब आएंगे तब सब बातें साफ-साफ बता देने का हमने निश्चय किया है। कोई भी मुझे रोक नहीं सकेगा। तुम न भी आते तो तुमको बुलवाकर यह सब-कुछ बता देना चाहता था। अब हम इससे ज्यादा कुछ नहीं कहेंगे। भगवान् तुम्हें सद्बुद्धि दे। तुम जा सकते हो।"
तिरुवरंगदास चुपचाप चला गया। उसका चेहरा उतर गया था। आश्रम से बाहर आते ही चेहरे का वह भाव बदल गया।
आचार्यजी के आदेश के अनुसार सचिव सुरिगेय नागिदेवण्णा ने पट्टमहादेवीजी के नाम विस्तार से एक पत्र लिखा । उसमें लिखा, "महासन्निधान से यह निवेदन करें कि वे इस प्रतिष्ठा-समारम्भ में अवश्य पधारें। इस आशय का पत्र सन्निधान के पास भिजवाएँ । उन्हें यह भी बताएँ कि इस प्रतिष्ठा-समारम्भ के समाप्त होते ही श्री आचार्यजी
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 227