________________
तिरुवरंगदास अपने दुपट्टे के अन्दर ही अन्दर हाथ मलता रहा। "सन्निधान से कोई खबर मिली?"
"समाचार आते रहते हैं । वे अब हेदौरे की तरफ आक्रमण करने की योजना में लगे हैं। पहले एक-एक का नाम लेकर कुशल पूछा करते थे। अब एक ही पंक्ति में लिख देते हैं कि पट्टमहादेवी और राजपरिवार के सभी जन कुशल हैं न? हम विस्तार के साथ सभी का कुशल समाचार भेजते रहे हैं।"
"रानो पालदेवी और उनकी बहनें राजधानी में ही हैं?"
"सो क्यों ? इतने दिन राजधानी में...?" "मैं कैसे कह सकता हूँ। वे भी तो राजमहल ही की हैं न? चाहे जहाँ रहें।" "मैं अकेली बाहर की है।' रानी लक्ष्मीदेवी कह बैठी। "किसी ने ऐसा समझा नहीं। आप स्वयं ऐसा क्यों समझती हैं?"
"अपने आप कोई ऐसा नहीं समझता। जो अनुभव करता है वही जनता है। मेरा तो इस षड्यन्त्र को लेकर दिमाग खराब हो गया है। अब यही देखिए, मेरे नाम की अंगूठी बनी तो मेरी कितनी कुख्याति होगी, आप ही सोचकर देखिए!"
"आपको ऐसे परेशान नहीं होना चाहिए।" "परेशान कैसे न हों? कोई एक बात कहे तो उसका दूसरा अर्थ ही लगा लिया
जाता है।"
"बुरे विचार करनेवाले हर जगह होते हैं। इन सब बातों के बारे में सोचना नहीं चाहिए। मनुष्य गलती करेगा ही, यह सहज है। किसने गलती नहीं की है? महासन्निधान ने नहीं की? पट्टमहादेवी जी ने नहीं की? प्रधानजी ने नहीं की? आपने नहीं की? आपके पिता ने नहीं की? मैंने नहीं की? सभी से कुछ-न-कुछ गलतियाँ हुई हैं। ऐसी गलतियाँ अनजाने हो जाया करती हैं, ऐसी हालत में वे क्षम्य होती हैं। लेकिन किसी स्वार्थवश अथवा किसी का अहित करने के उद्देश्य से गलत काम किया जाए तो वह कैसे क्षम्य हो सकता है?"
"क्या महासन्निधान से भी कोई गलती हुई है? क्या गलती हो सकती है?"
"वह बात उनके समक्ष ही कहें तो ठीक। यों पीठ-पीछे ऐसी चर्चा नहीं करनी चाहिए।"
"मैंने क्या गलती की?"
"वह दूसरे कहें, यह ठीक नहीं। आपको ही समझना चाहिए और आप ही को कहना चाहिए कि आपसे अमुक गलती हुई।"
"कोई अपनी गलती आप कहेगा?" "ऐसा न कहे तो उसके मन को शान्ति नहीं मिलेगी। कभी वह गलती प्रकट
434:: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार