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इन दोनों अंगूठियों को पहचानने लायक दो अलग-अलग डिब्बियों में रखकर उन पर मुहर लगाकर मेरे हाथ में दें। रानीजी को इस विषय में चिन्तित होने की जरूरत नहीं। इसका परीक्षण बड़ी सतर्कता से किया जाएगा। और इसे बनानेवाले का भी पता लगाया जाएगा। आप भी गुप्तचरों का सहयोग लें और उनकी मदद करें। आपको कष्ट दिया, इसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ। मैं कल लौटूगा। पट्टमहादेवीजी को कोई पत्र दें तो उसे सहर्ष लेता जाऊँगा।" कहकर वे उठ खड़े हुए।
__रानी ने कहा, "अच्छी बात है।" इस बीच बार-बार अपने पिता की ओर यह देखती रही थी, इससे कुछ और कहने का मन नहीं हुआ।
मादिराज चले गये। पिता के साथ अपने विश्रामगृह में जाकर रानी ने किवाड़ बन्द किये और कहा, ''पिताजी, आपने यह क्या किया?" उसकी आँखों में आँसू थे।
"क्या हुआ, बेटी? क्यों इतना परेशान हो रही हो। जिसने गलती की है, वे पकड़े जाएंगे। तुम तो चुप बनी रहो। मेरे साथ इस मामले का कोई सम्बन्ध नहीं है।" यों बहुत ही शान्तभाव की मुद्रा बनाकर उसने कहा।
"मैं आपकी बात पर विश्वास नहीं करती।" उसने अविश्वास से सिर हिला दिया।
उधर हुल्लमय्या और मादिराज ने दूसरे सुनारों को बुलवाकर दर्याप्त किया। उन लोगों ने साफ-साफ बता दिया कि उन्होंने राजमहल का कोई काम ही नहीं किया है। मादिराज को निराशा हुई। उनके मन में यह निश्चय हो चुका था कि नकली अंगूठी यहीं पर बनवायी गयी है, तो भी वह लाचार थे। उन्हें उस वक्त वहाँ करने के लिए कोई काम नहीं था। अंगूठियों की मुहर बन्द डिषियों के साथ वह राजधानी लौट आये।
इतने में महाराज के पास से पत्र आया। उसमें पट्टमहादेवीजी के भ्रमण पर जाने के लिए अनुमति दी गयी थी। दो और बातें उसमें थीं । एक, तलकाडु न जाना अच्छा है और दूसरी बात हानुंगल आने का निमन्त्रण । यात्रा की तैयारियाँ होने लगीं। शान्तलदेवी ने विनयादित्य को साथ चलने के लिए कहा। वह भी जाना चाहता था मगर उसने कहा, "राजधानी में सन्निधान और आपकी अनुपस्थिति में यहाँ किसी-न-किसी का रहना अच्छा है।" यो जाने की इच्छा होते हुए भी, वह वहीं ठहर गया।
अंगूठियों का सारा विवरण महाराज को बता दिया गया।
अपने माँ-बाप की अनुमति पाकर शान्तलदेवी ने भ्रमण की तैयारी शुरू की। साथ में रेविमय्या, मायण और चट्टला तथा उनका बेटा बल्लू, रानी पद्मलदेवी और उनकी बहनें तथा उनकी सुरक्षा के लिए आवश्यक रक्षक दल, सय रवाना हुए।
वेलापुरी, फिर सोसेऊरु, मल्लिपट्टण, पनसोगे, वह्निपुष्करिणी होते हुए वे यादवपुरी पहुंचीं।सोसेऊर में बेटे और बहू के साथ, यादवपुरी में बेटी और दामाद के साथ, कुछ दिन रहीं। हरियला की दूसरी सन्तान लड़का ही हुआ था। उसका बिट्टिमय्या नाम रखा
436 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार