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'सच है, चामला। उस वृषभ के सींगों के बीच से मैंने तो प्रभा मण्डल का दर्शन पाया है। मैं तब यहाँ आयी जब पहले-पहल उपनयन संस्कार के लिए सोसेऊरु आयी थी।"
"तब बिट्टिदेव... माफ करें, सनिधान गुप्त रीति से आपके साथ आये थे । इस बात को लेकर हमारी माँ आग-बबूला हो उठी थीं।" चामलदेवी बोली ।
"
'परन्तु उस नवीन सह-यात्रा ने मुझको अनिर्वचनीय आनन्द प्रदान किया थाबेलुगोल से ही रेविमय्या कहता आ रहा है।"
"उसने जो कुछ कहा वही हुआ न?" पद्मलदेवी ने कहा ।
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'वह जो कुछ कहता है उसमें उसका कोई स्वार्थ नहीं होता। इसलिए भगवान ने उसके मन के अनुसार सब होने दिया । "
शिवगंगा में एक सप्ताह बिताकर आगे क्रीडापुर, कूडली, बलिपुर जाने की योजना बनी थी। शिवगंगा से रवाना होने से पहले वहाँ के धर्मदर्शी ने कहा, "आनेवाली शिवरात्रि को यहाँ अवश्य पधारने की कृपा करें। यहाँ एक शारदापीठ का शुभारम्भ करके इस तीर्थक्षेत्र को ज्ञान क्षेत्र बनाने की इच्छा है।"
" ऐसे उत्तम कार्य के लिए आने से इनकार कर सकता है कोई? हम अवश्य आएँगे।" शान्तलदेवी ने तुरन्त आश्वासन दिया।
क्रीडापुर में तो विशेष उत्साहपूर्ण वातावरण रहा। जकणाचार्य, डंक और लक्ष्मी को ऐसा लग रहा था कि मायका ही स्वयं इधर आ गया हो। वे बहुत तृप्त थे. प्रसन्न थे।
वहाँ से कूडली आयीं, शारदा के दर्शन किये। फिर बलिपुर पहुँचीं। अपने जन्मगृह में ही शान्तलदेवी ने पट्टमहारानी की हैसियत से मुकाम किया। शान्तलदेवी ने उस समय का सारा वृत्तान्त पथलदेवी और उनकी बहनों से कह सुनाया। शिल्पी दासोज और चाण के लिए तो ऐसा लगा कि स्वयं स्वर्ग ही बलिपुर में उतर आया हैं। ऐसे कलाक्षेत्र में शान्तल का जन्म हुआ है, इस बात की जानकारी पद्मलदेवी और उनकी बहनों को तब हुई।
बलिपुर से हानुंगल जाकर एक-दो महीने महाराज के साथ रहकर, शान्तलदेवी फिर राजधानी लौट आर्यों। उनके इस प्रवास में छोटे बिट्टिदेव से कोवलालपुर में जाकर मिलना न हो सका था। यात्रा लम्बी होने पर भी सुगमता से सम्पन्न हुई थी। राजधानी लौटने के एक पखवाड़े के बाद पद्यलदेवी और बहनों ने राजधानी से प्रस्थान किया। यदुगिरि में नागिदेवपणा ने जो तहकीकात की, उससे एक बात और स्पष्ट हो गयी। रानी लक्ष्मीदेवी के पिता ने उस अंगूठी को बनवाने के लिए सुनार से कहा था। उस सुनार को राजधानी में बुलवा लिया गया था। न्यायपीठ के सामने उसे पेश किया
था।
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार: 439