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शान्तलदेवी पद्मासन लगाकर दक्षिण की ओर मुंह करके बैठ गयीं और गाने ली। उनके कण्ठ से निकला संगीन चारों ओर वातावरण में गिर गया। पास ही स्थित पहाड़ से टकराकर वह गान - माधुरी प्रतिध्वनित हो उठी। उस रस माधुरी में सन्न अपने को भूल गये। गाते गाते उनका गायन आरोहण के सबसे ऊँचे स्वर तक पहुँचकर एकदम रुक गया।
उपस्थित सभी जन जैसे एकदम जागे, आँखें खोली।
शान्तलदेवी आँखें बन्द किये, एक स्तम्भ से सटकर बैठी थीं। उनके मुंह पर एक तरह को शान्तिपूर्ण कान्ति दमक रही थी।
"बेटी शान्तला!" पुकारते हुए मारसिंगय्या अपनी जगह से उठे। दो कदम आगे बढ़े, इतने में ही काँप उठे। गिरने को ही थे कि पास में खड़े किसी ने उन्हें संभाल लिया।
लेकिन शान्तल के पास आते ही वह भी वहीं गिर रहे और फिर नहीं उठ सके।
"हाय, यह क्या हो गया!" कहती हुई माचिकच्चे बेटी के पास आयी। माथा छुआ। शान्तलदेवों का सिर एक तरफ झुक गया। माचिकब्बे ने पैर छूकर देखा ! वह ठण्डा हो रहा था। "इसीलिए कहा था कि ध्यान कर लूँ तो बस...? यही देखने के लिए मुझे जीवित रहना था? मुझे बेलुगोल ले चलिए। वहीं सल्लेखना व्रत धारण कर देह-त्याग करूँगी। किसी से कहे बिना पाँच दिन का व्रत करके उसने मुक्ति पा ली?" वह रोने लगी। साँस धीमी पड़ गयी। एक भयानक मौन वहाँ छा गया।
तभी दूर से घोड़ों की टाप सुनाई पड़ी।
लोगों के कान टापों की ओर लग गये थे। सभी की आँखों से आँसू की धारा बह रही थी। सात-आठ घुड़सवारों के साथ दो रथ आकर रुके। महाराज बिट्टिदेव घोड़े से उतरे । वहाँ उपस्थित जन-समूह देखा। उन्होंने पूछा, "पट्टमहादेवी कहाँ हैं?''
किसी ने उत्तर नहीं दिया। इतने में दूसरे रथ से रानी बम्मलदेवी और रानो राजलदेवी उतर चुकी थीं। रेविपय्या आँसू बहाता हुआ सामने आकर खड़ा हुआ।
"क्या हुआ, रेविमय्या?"
"अम्माजी मुक्त हो गयीं। हेम्गड़ेजी भी उनका अनुगमन कर गये। सन्निधान थोड़ा पहले ही आ जाते तो...! अम्माजी तीन दिन से बराबर सन्निधान के आगमन की प्रतीक्षा करती रहीं।" कहते हुए उसका गला रुंध गया।
"अब देवी कहाँ हैं?"
रेविमय्या मौन हो आगे बढ़ा। महाराज बिट्टिदेव, रानियाँ, बम्पलदेवी और राजलदेवी रेविमय्या का अनुगमन कर पट्टमहादेवी के पास आ गिरे।
वहाँ जो लोग उपस्थित थे उनके दुःख का अनुमान लगाना उस सिरजनहार के लिए भी शायद कठिन रहा होगा।
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 453