Book Title: Pattmahadevi Shatala Part 4
Author(s): C K Nagraj Rao
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 451
________________ पिता और पुत्री का अन्तिम संस्कार शिवगंगा में ही सम्पन्न हुआ। संस्कार की सभी विधियों युद्ध में विजय पाकर, लोक्किगुण्डी में शार्दूल पताका को फहराकर लौटने वाले महाराज चिट्टिदेव की उपस्थिति में ही पूरी की गयीं। कालान्तर में मात्रिक भी श्रवणबेलगोल में जाकर सल्लेखना व्रत का अनुष्ठान और पुरी के सा महाराज ने रामियों - राजलदेवी और बम्मलदेवी- के साथ वहाँ जाकर अश्रुतर्पण दिया। अपनी शिष्या की मृत्यु को स्वयं देखना पड़ा, इस कारण बोकिमय्या अत्यन्त दुखी थे; उस समय उन्हें जैसा लगा, वे शान्तलदेवी तथा उनके माता-पिता के देहावसान के वृतान्त को लिपिबद्ध करके ले आये और महाराज को समर्पित किया। महाराज ने उसे सावधानी से पढ़ा वह यों था'श्रीमत्परमगंभीर - स्याद्वादामोघलांछनम् । जीयान्त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥ - श्रीमद्यादववंशमण्डनमणि: क्षोणीश- रक्षामणिः । लक्ष्मीहारमणिः नरेश्वरशिरः प्रोतुंग-शुम्भद्मणिः ॥ जीयान्वीतिपथे क्षदर्पणमणिः लोकैक चूडामणिः । श्रीविष्णुर्विनयाच्चितो गुणमणि: सम्यक्त्वचूडामणिः ॥ - 1. श्रीमत्परम गम्भीर, स्याद्वाद के अमोध लांछन से युक्त, तीनों लोकों के नाथ का शासन अर्थात् जिनदेव के शासन की जय हो । श्री यादववंश के भूषणरत्न, नृपालों के रक्षकरत्न, लक्ष्मी के हार के रत्न, राजाओं के उन्नत ललाट पर शोभायमान रत्न, अश्वमार्ग जैसी चंचलेन्द्रियों के लिए दर्पण के समान, लोक के लिए एकमात्र चूडारत्न, गुणों से शोभित, सम्यक्त्व के श्रेष्ठरत्न, विनय से विभूषित श्रीविष्णु जयवन्त हों । पट्टमहादेवी शान्तला भाग चार: 457 +

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