Book Title: Pattmahadevi Shatala Part 4
Author(s): C K Nagraj Rao
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 440
________________ अब तो द्वेष रखनेवाले वे विक्रमादित्य भी नहीं रहे । अब उनके बेटे सोमेश्वर पर यह विटेप क्यों हो? प्रस्तुत मैत्री स्थापित करके सहजीवन और सह-अस्तित्व की भावना को बल देना चाहिए-यही कहा था। रानी लक्ष्मीदेवी के पिता पर का क्रोध इस रूप में निकलेगा, यह समझा न था। फिर भी मैं कर्तव्यच्युत कैसे होऊँ ? अब तक उन्होंने मुझ पर और मेरे सहयोग पर अपार विश्वास रखा है। उस विश्वास को आघात पहुँचाऊँ तो वह आघात उन पर होगा। ऐसा होना बुरा है, राज्य के हित के लिए भी।' यह सब सोच-विचार कर वह मन-ही-मन, 'अर्हन्! मैं कर्तव्य से विमुख नहीं हो सकती। कर्तव्यपालन के लिए उतना उत्साह भी नहीं दिखा सकती। मुझे जल्दी ही छुटकारा दिलाओ, भगवन् !' यह प्रार्थना करती हुई दिन गुजारने लगी। __ बिट्टिदेव को सेना साविमलै को पार कर लोक्किगुण्डी तब बढ़ गयी थी। किसी तरह के प्रत्याक्रमण के बिना विट्टिदेव लोक्किगुण्डी की सीमा तक पहुंच चुके थे। मजबूत किले से लोक्किगुण्डी सुरक्षित थी। उसे अपने कब्जे में कर लेने के लिए अपना बल बढ़ाना था और मौके की प्रतीक्षा भी करती थी। लोक्किगुण्डी से एक कोस दूर पर पड़ाव डाला था। इस बीच सात-आठ महीने बीत चुके थे। उसी पड़ाव में शान्तलदेवी का पन्न आया। पत्र में यों लिखा था-- 'महासन्निधान के चरणकमलों में सविनय प्रणाम। मेरे पिताजी ने अब की बार शिवरात्रि के उत्सव पर शिवगंगा जाने का विचार किया है। वह वयोवृद्ध हैं, इस वक्त परलोक की चिन्ता में लगे हैं। इस मौके पर सन्निधान की उपस्थिति की तीव्र अभिलाषा है उनकी। उनके साथ मेरी माता, मैं और विनयादित्य जा रहे हैं। बल्लाल और छोटे बिट्टिदेव को वहीं आ जाने के लिए कहला भेजा है। सन्निधान की आज्ञा लेकर यात्रा का निश्चय करने के लिए समय का अभाव था। इसलिए सन्निधान की अनुमतिप्राप्ति की प्रतीक्षा में यह निर्णय किया गया है। सन्निधान के साथ रानी बम्मलदेवी, राजलदेवी जी भी पधारेंगी तो बहुत प्रसन्नता होगी। पता नहीं क्यों, मेरी भी इच्छा सबको देखने को ही हो रही है और दिन-ब-दिन बढ़ती ही जा रही है। 'इस अवसर पर वहाँ शिवगंगा में एक विशेष कार्य सम्पन्न होने जा रहा है । मैं अपने प्रवास के समय जब वहाँ गयी थी तन्त्र वहाँ के धर्मदर्शी ने इच्छा प्रकट की थी कि इस शिवरात्रि के अवसर पर वहाँ एक शारदापीठ की स्थापना करनी है, और उसके प्रतीक रूप में वहाँ ज्ञान-बोध के लिए आवश्यक व्यवस्था करनी है। यह बहुत ही उचित और आवश्यक कार्य प्रतीत हुआ। वास्तव में मैं उनकी यह प्रार्थना भूल ही गयी थी। मेरे पिताजी ने जब अपनी इच्छा प्रकट की, तब स्मरण हुआ। सन्निधान पधारेंगे तो इस चरणकमल-उपासिका को बहुत शान्ति मिलेगी। "प्रसंगवश मैं एक और निवेदन कर रही हूँ। आजकल युद्ध की बात मेरे मन को अँधती ही नहीं। यह हिंसापूर्ण काम आत्मरक्षा के लिए जरूरी हो तो और बात है। 444 :: पट्टमहादेवी शान्तला : पाग चार

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