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"सभी लक्ष्मीदेवी बन सकती हैं?"
"कौन बनेगी, कौन नहीं बनेगी सो तो कहा नहीं जा सकता। फिर भी पद्मलदेवी और उनकी बहनों ने जो किया, वह किस तरह इससे भिन्न है?"
"हमा बैंक अकाल चुकाना हम जिलावासीन न होते तो कितना अच्छा होता। पट्टमहादेवीजी ने मेरी माताजी को जो वचन दिया, उसका पालन जैसा कर रही हैं, चाहते तो वैसा हम भी कर सकते थे। इन्द्रलोक में हमारी माँ को आज कितना कष्ट हुआ होगा, सो हम जानते हैं। इतने बड़े राज्य का निर्माण करके हम आज प्रधान राजधानी से इतनी दूर हैं, यही इस बात का साक्षी है। लेकिन अब यों ही चुप बैठे रहने पर यही चिन्ता सालती रहेगी, इसलिए शीघ्र ही हेदोरे की ओर चलेंगे। युद्ध में लगे रहने पर ये सब बातें मन में नहीं आतीं।"
"सो भी ठीक है," कहकर बम्मलदेवी ने बिट्टिदेव की छाती पर अपने हाथ का स्पर्श दिया। उन्होंने उसे वैसे ही जोर से दबा लिया और कहा, "हमारे हृदय की शान्ति के लिए एक तुम ही सहारा हो।"
"स्वामी, अब सो जाइए। बहुत रात बीत गयी है।" बम्मलदेवी ने कहा।
दो-तीन दिन के बाद महाराज बिट्टिदेव सेना के साथ उत्तर की ओर बढ़ चले। गुप्तचरों द्वारा यह समाचार राजधानी में पहुंचा।
वहाँ के कार्य यथावत् चलते रहे । युद्ध की बात हुई तो उससे सम्बन्धित हलचल राजधानी में भी बढ़ गयी। धान्य-संग्रह, सैनिक-शिक्षण आदि कार्य तेजी से चलने लगे 1 शान्तलदेवी को काम से छुट्टी नहीं। शस्त्रास्त्रों की तैयारी का काम भी तेजी से चलने लगा था। परन्तु उनमें सदा का-सा उत्साह न रहा। 'मुद्दला जैसे कितने निरपराधी इस तरह की लड़ाइयों में मरेंगे! राज्य-निर्माण करने और उसका संचालन करने की महत्त्वाकांक्षा में यह कैसा नरमेध हो रहा है! यह सब सोचकर ही अशोक ने युद्ध से संन्यास ले लिया था ! सन्निधान भी उसी तरह का युद्ध-संन्यास ग्रहण करें तो कितना अच्छा हो! अब तक हम पर हमला करनेवालों, हमारे लोगों के प्राणों पर ही आघात करनेवालों, हमारी सुख-शान्ति में बाधा डालनेवालों से ही युद्ध हुआ करते थे। बहुत हद तक वह आत्म-रक्षा के लिए होते थे,...परन्तु अब की बार हम स्वयं हमला करें, सन्निधान ने ऐसा निर्णय ही क्यों किया? हानुंगल में जब मिले थे तब मैं निवेदन कर आयी थी कि मेरे बच्चों को राज्य न मिले न सही, यह हत्या का व्यापार रुक जाना चाहिए। राज्य की एकता बनी रहे, और हेदोरे तक फैलने की इच्छा न करें। चालुक्यों ने शत्र समझकर हम घर हमला किया था। हमने केवल उनका सामना किया, उन्हें शत्रु समझकर युद्ध नहीं किया। मैत्री बढ़ाने के विचार से कवि नागचन्द्र को भेजा भी था।
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 443