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नहीं था। इसलिए न्याय मण्डल ने सुनार को ही देश निकाले का दण्ड दिया। पश्चात् पत्र द्वारा सारा विवरण महाराज के पास जानकारी के लिए भेज दिया। उस समय महाराज बंकापुर में निवास कर रहे थे।
पट्टमहादेवी से रानी लक्ष्मीदेवी ने अपने पिता के विषय में जो कहा था उसे भी बता दिया गया।
महाराज से जवाब मिला । लिखा था : तिरुवरंगदास के फिर से राज्य में प्रवेश करने पर रोक लगा दें। रानी अपने पिता को देखने की इच्छा प्रकट करें तो फिर लौटने की आशा छोड़कर वहीं चली जाएँ ।
रानी लक्ष्मीदेवी महाराज के इस निर्णय से बहुत आतंकित हुई। उसने अपने मन में निश्चय कर लिया कि इन सबका कारण यह पट्टमहादेवी ही हैं।
बिट्टिदेव ने अपना निर्णय तो लिख भेजा। महाराज की हैसियत से कर्तव्य तो किया जा चुका था, परन्तु मन पर उसकी गहरा प्रभाव पड़ा था। चंचल और अस्थिर बुद्धि की लड़की को रानी बनाने के कारण खुद को धिक्कारते रहे। इधर कुछ वर्षों से बम्मलदेवी के साथ रहने से उससे विशेष आत्मीयता पैदा हो गयी थी। यह आत्मीयता करीब-करीब उसी स्तर की थी जैसे कभी शान्तलदेवी के साथ थी, क्योंकि उनके मन में इधर कुछ समय से शान्तलदेवी के प्रति आदरभाव बढ़ने लगा था। शारीरिक सम्बन्ध के न होने पर भी, प्रेम कम न हो पाया था। और शान्तलदेवी ने भी स्वयं को सब तरह से सभी परिस्थितियों के साथ समन्वित करके, महाराज के सुख और प्रजाहित को ही जीवन का लक्ष्य बना रखा था। पहले जिस आत्मीयता से अपने मन की बातों को खुलकर कहते रहे, उस तरह अब कहने से उनका मन पीछे हटता था। उनकी धारणा थी कि महान इंगितज्ञ एवं सूक्ष्ममति तथा स्थिरचित्त शान्तलदेवी अपने से ऊँचे बहुत स्तर पर हैं। इसलिए अपने अन्तर की इच्छाओं को प्रकट करने के लिए उन्होंने बम्पलदेवी से आत्मीयता बढ़ायी थी। राजलदेवी वैसे ही बहुत कम बोला करती थी ।
एक दिन बिट्टिदेव ने अपने विश्रामागार में बम्मलदेवी से एकान्त में कहा "देखो देवि, हमने इस तरह का अपना निर्णय राजधानी को भेज दिया। इस तरह का निर्णय देने की यह स्थिति उनके अपने ही किये अपराध के कारण आयी हैं। इससे मन बहुत परेशान हैं। "
" राजनीतिक कारणों से जो निर्णय किया गया उससे परेशान हो जाएँ तो काम कैसे चलेगा ?"
"यह केवल राजनीतिक कारण नहीं, उससे भी परे है। देवि, तुम मुझे क्षमा करो। हमने अपने ही व्यवहार से अपनी पट्टमहादेवी को खो दिया । "
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार: 441