Book Title: Pattmahadevi Shatala Part 4
Author(s): C K Nagraj Rao
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 433
________________ गया था। वहाँ से यदुगिरि आकर वहाँ शहजादी की समाधि का दर्शन कर, पद्मलदेवी और उनकी बहनों को शहजादी की भक्ति की चरमावस्था का किस्सा सुनाया। वह किस तरह उस रामप्रिय की प्रिया बनी, यह बताया। कहा, यही जगह है जहाँ उसकी आत्मा ने उस यवन-देह से मुक्त होकर, अपने उस रामप्रिय से सायुज्य प्राप्त किया। "जब एक यवनकन्या को रामप्रिय पर इतनी भक्ति है तब रामप्रिय-पन्थी लोग यों पागलों की तरह क्यों चिल्लाते फिरते हैं?" चामलदेवी ने कहा। "यों चिल्लाते फिरनेवाले सभी धर्मों में हैं। हमारे जैनियों में नहीं हैं ? मैंने शहजादी के बारे में इसलिए कहा कि देह से आत्मा को जोड़ना गलत है। मेरे धर्म को अनुयायिनी अन्य धर्म के देव के साथ सायुज्य पा गयी, सोचकर उनका 'अल्लाह गुस्से से नहीं भर उठा। विश्वास और श्रद्धा जितनी गहरी होती है उसके अनुसार ही फल की प्राप्ति होती है। राजकुमारी की आत्मा सचमुच पवित्र है।" "हमने तो उन्हें देखा नहीं, प्रत्यक्ष देखने वाली आज आपके मुंह से सुना । कहाँ कैसा महत्त्व छिपा होता है, इसका पता ही नहीं लगता!" पद्मलदेवी ने कहा। वहाँ के यतिराज रामानुज के मठ के लोगों के आग्रह पर शान्तलदेवी अपनी इच्छा से भी अधिक दो दिन ज्यादा ठहरीं। फिर यदुगिरि से तलकाडु की और उन्हें जाना था। उसी समय चट्टलदेवी शान्तलदेवी के पास आयो । कुछ बोली नहीं । शान्तलदेवी के साथ रानी पद्मलदेवी थी। "क्या है, चट्टला?" "माफ करें, एक ख़ास बात...?" "ऐसी रहस्यपूर्ण बात है?" "वह तो सन्निधान ही सोचें । मैं तो केवल निवेदन कर सकती हूँ। जो कुछ हमें मालूम होता है, उस सबको रहस्य ही मानें।" ___ "ठीक", कहकर शान्तलदेवी अपने लिए व्यवस्थित विश्रामागार में गयीं। चट्टलदेवी ने पट्टमहादेवी का अनुसरण किया । "क्या बात है?" "यदुगिरि के टीले पर एक मन्दिर के मण्डप में दो स्त्रियाँ बैठकर आपस में बातें कर रही थीं। उनकी बातें कुतूहलजनक थीं। एक कह रही थी कि वह सात-आठ महीने पहले तलकाडु से आयी और उसका पति वहाँ सुनार का काम कर रहा था। अब इधर कुछ समय से काम छोड़ दिया और श्रीवैष्णव बनकर हाल में यदुगिरि आया है। मेरे पति उनका पीछा करेंगे और उनके घर-बार तथा अन्य बातों की जानकारी लेंगे। अब उनके बारे में कुछ कार्यक्रम तुरन्त बना लेना होगा 1 क्योंकि हम कल ही तलकाडु की तरफ जा रहे हैं।" चट्टला बोली। पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 437

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