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हो जाए तो क्या होगा, यह चिन्ता मन में घुमड़ती रहती है।"
इसी समय हुल्लमय्या सुनारों को साथ लेकर आ गये।
तिरुवरंगदास ने सुनारों की ओर देखा। उसके चेहरे पर सन्तोष की रेखा खिंच गयी। उसके मन में जो घबराहट थी, वह कुछ कम हो गयी।
मादिराज ने सुनारों में प्रत्येक से सवाल किये। उन सुनारों ने एक-न-एक जेवर राजमहल के लिए बनाया जरूर था, मगर उन्होंने साफ-साफ कह दिया कि सनी लक्ष्मीदेवी के नाम की मुद्रांकित अँगूठी उनमें से किसी ने नहीं बनायी।
तर मादितन ने पागलपटल के लिए जो जेवर आप बनाते हैं, उनमें और दूसरों को बनाकर देनेवाले जेवरों में कोई फर्क होता है?"
"आपको स्वयं ही मालूम है न? राजमहल के जेवर शुद्ध सोने के होते हैं। अन्यत्र वह कितना ही शुद्ध हो, तिल भर मिलावट रहेगी ही।"
मादिराज ने अपने पास की अंगूठी एक सुनार के हाथ में देकर कहा, "इसे जरा कसौटी पर घिसकर देखिए और बताइए सोता कैसा है?"
उसने कसौटी को जेब से निकालकर अँगूठी को उस पर घिसकर देखा और "यह तो एकदम खरा सोना है" कहकर उसे लौटा दिया।
मादिराज ने रानीजी से निवेदन किया, "कृपया अपनी उँगली से अंगूठी निकालकर दें तो उसे भी कसौटी पर घिसवाकर देखा जा सकता है।"
तिरुवरंगदास ने झट से कहा, "उनके हाथ की अंगूठी को कसौटी पर घिसवानेवाले आप कौन होते हैं?" फिर उसे लगा कि इस तरह कहकर उसने गलती कर ली है।
"सच का पता तो लगाना ही चाहिए न, लीजिए मन्त्रीजी!" कहती हुई रानी लक्ष्मीदेवी ने अँगूठी उतारकर दे दी।
उसे कसौटी पर घिसकर सुनार ने बताया, "यह खरी नहीं है, इसमें चौथाई मिलावट है। किसी अनजान सुनार ने इसे बनाया होगा। राजमहल के लिए, खासकर रानीजी के नाम से अंकित अँगूठी के बारे में, कोई जानकार सुनार ऐसा न करेगा।"
"हुल्लमय्याजी, इनके अलावा भी कोई और सुनार हैं क्या?" "हाँ, हैं। मैंने अभी केवल राजमहल के जेवर बनानेवालों को ही बुलवाया है।"
"ठीक। इन सबको जाने दीजिए। एक निर्णय तो हो गया कि मुद्दला जो हत्यारों का शिकार बनी, उसके पास जो अंगूठी थी वही रानीजी की असली अंगूठी है। अब रानी के हाथ में जो है सो नकली है। इससे यही निश्चित होता है कि पहले रानीजी की अंगूठी की चोरी हुई, और उसी तरह की एक दूसरी अंगूठी बनवायी गयी। इसके यही माने हुआ कि यह काम किन्हीं नजदीकी लोगों के ही द्वारा हुआ है। इसकी अच्छी तरह से आद्यन्त तहकीकात होनी ही चाहिए। दूसरे सुनार चाहे स्वीकार करें या न करें, उन्हें राजधानी ले जाकर उनकी पूरी जाँच करवानी ही होगी। इसलिए हुल्लमय्याजी,
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 435