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की तरफ से आयी है तो कहीं ऐसा तो नहीं कि वह धर्मदर्शी तथा उसकी बेटी इसके प्रेरक हों। अगर यह खबर सही हुई तो यह कितना भयंकर कार्य होगा! अपने कटु अनुभव के आधार पर रानी पालदेवी ने जो सलाह दी थी, उसके अनुसार सन्निधान के एकपत्नी प्रती बने रहने पर जोर दे दिया होता तो आज यह सवाल ही नहीं उठता। सन्निधान के मतान्तरित होने से, धर्म की आड़ में कुछ लोगों का स्वार्थ अपना विकराल रूप दिखाने लगा है। काम-क्रीय माद के बाद भोगों से पास दुनिया - ऐर कार्य चलते ही रहेंगे। उन्हें तो बस कुछ कारण चाहिए। लेकिन ऐसे लोगों से डर कर यदि हम इस प्रवृत्ति को बढ़ने दें तो अब तक हम जिस लक्ष्य की ओर बढ़ रहे थे उसका क्या होगा? पूरी बात जानने के लिए जो मौका मिला था यह भी हाथ से निकाल दिया। मायण को न भेजती तो शायद अच्छा होता! पर...यदि न भेजती और यह बात प्रकट होकर फैल जाती तो फिर तो हमारे राजमहल को बातें गली-कृचों में होने लगती!
आखिर मेरी हत्या करने से उन्हें क्या लाभ? मेरे बेटे क्या चूड़ियाँ पहने बैठे रहेंगे? विनयादित्य के मन में कैसे विचार उठ रहे हैं, यह सब ज्ञात होने पर उसके भाई क्या सोच रहे होंगे, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। तिस पर यदि सन्निधान ने स्वयं बड़े अप्पाजी से कह दिया हो तो अन्त क्या होगा, यह सोच नहीं सकती। आदमी चाहे अच्छा हो या बुरा, एक-न-एक दिन तो उसकी मृत्यु होनी ही है। या फिर जैन मत के अनुसार इच्छा-मरणी भी हुआ जा सकता है। तो फिर यह हत्या की बात क्यों बार-बार मुझे आ घेरती है? हाय रे मन! क्यों तु इस तरह आतंकित हो रहा है? मेरी जन्म-पत्री को देखनेवालों ने यह नहीं कहा कि मेरी मृत्यु ऐसी होगी। मैंने स्वयं उसे देखा है। स्थपति जकणाचार्यजी ने भी उसकी प्रशंसा की थी। फिर भी इस षड्यन्त्र की बात जब से सुनो है, तब से मन जाने क्यों इतना विचलित हो रहा है। अपने इस मन को यदि किसी और काम में न लगाया जाए तो यह चिन्ता सालती हो रहेगी. अन्दर ही अन्दर काँटे की तरह चुभती ही रहेगी।' यों सोचती शान्तलदेवी ने घण्टी बजायो। दासी ने आकर प्रणाम किया।
"मेरी वीणा ले आओ।" शान्तलदेवी ने आदेश दिया। जल्दी ही दासी वीणा ले आयी और पर्लंग पर रखकर चली गयी।
शान्तलदेवी उठी और पलँग पर बैठकर अपनी वीणा के सुर ठीक बिठाकर एकाग्र हो जिन-तोड़ी राग निकालने लगी। यदि मन में एक बार आतंक बैठ जाए तो उसकी छाया मनुष्य को ढंक देती है। आतंक की इस छाया से दूर होने में वीणा ने उनकी मदद को। उन्हें समय का पता ही नहीं लगा। इधर कुछ वर्षों से पट्टमहादेवी ने इस तरह तन्मयता से वीणा नहीं बजायी थी। पट्टमहादेवी के सो जाने पर, दोपक को एक कोने में रख, रोशनी की आड़ देकर, फिर दासी सो जाया करती थी परन्तु उस दिन उसे बहुत समय तक प्रतीक्षा करनी पड़ी। राजमहल के अन्य भागों में काम
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 295