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दोनों से कुछ अलग ही दंग है उनका। एक बात सुनिए हरीशजी ! देखने में दोनों मन्दिर एक-से लगते हैं फिर भी वास्तु की दृष्टि से दोनों अलग-अलग हैं। भिन्नता में एकता को आपने रूपित किया है। वास्तव में बहुत हो प्रशंसनीय बात है यह। इस युगलमन्दिर में सौन्दर्य बढ़ाने और सजावट से अलंकृत करने के लिए काफी गुंजाइश भी रख छोड़ी है। चाहें तो आनेवाली पीढ़ियाँ नयी-नयी कृतियों से इसकी सुन्दरता बढ़ा
कती हैं। तात्पर्य यह कि नयी-नयी कृतियों को अपनाते हुए इस मन्दिर का विकास किया जा सकता है, इतना इसमें अवकाश दे रखा है। इस दृष्टि से यह अभी अपूर्ण है, फिर भी कितना आकर्षक है!"
"धन्य हुआ। इस मन्दिर के निर्माण में सहयोग देनेवाले सभी शिल्पी आपको गस्थिति से बहुत आनन्द-विभोर हैं। मेरे रेखाचित्र के अनुसार अभी बचा-खुचा जो कार्य हे वह एक पखवाड़े के अन्दर-अन्दर पूरा हो जाएगा, ऐसी आशा है। आरम्भ में जो तेजी रही वह धीरे-धीरे कम होती गयी। अब, आपके आगमन के बाद, सभी शिल्पी दुगुने उत्साह से निर्माण कार्य में जुट गये हैं। विजयोत्सव तक मेरी जिम्मेदारी समाप्त हो जाएगी। तब तक आप यहीं रहें तो यह हमारा सौभाग्य होगा।"
5 अधि में मार इसे पूरा करने के विकार है, ता न करें। जल्दबाजी में कला का कार्य लिंगड़ जाने का डर रहता है। इस बीच एक बार वेलापुरी हो आने की सोच रहा हूँ । सुविधा हो तो आप भी साथ चलें।"
''क्षमा करें। अभी इस कार्य में ही मेरा चित्त है।" "आपकी इच्छा।" इतने में मंचण वहाँ उपस्थित हो गया।
"ओफ ! भोजन का समय हो गया, यह याद दिलाने आये? अच्छा, चलता है हरीशजी !'' कहते हुए जकणाचार्य इंकण के साथ मंचण के पीछे चल दिये।
अनन्तर राजदम्पती की अनुमति पाकर पिता-पुत्र बेलापुरी के लिए रवाना हो गये। मंचण भी साथ रहा।
विजयनारायण और मण्डकगर्भ चेन्निगराय दोनों के दर्शन किये। अपने जाने के बाद मन्दिर का जो विस्तार हुआ उसे देखकर जकणाचार्य बहुत खुश हुए। परिकल्पना के अनुरूप बड़ा अहाता उस मन्दिर को प्राप्त हो गया था। बाद में यह केवल देवमन्दिर न रहा, ज्ञान-मन्दिर भी बन गया। शैव-जैन-वैष्णव सिद्धान्तों का अध्ययन परम्परागत रीति से बराबर चल रहा था। संगीत, साहित्य, और नृत्य का शिक्षण पूर्ण उत्साह के साथ चल रहा था । वास्तुशिल्प विद्यालय, जो उस समय शुरू हुआ था, नये निर्माण की ओर अग्रसर था। देश के युवा जन ज्ञानार्जन में लगे हुए थे। यह सारी प्रगति देखकर जकणाचार्य का हृदय आनन्द से भर उठा। यह स्थान, जो अपने जीवन के लिए सुखसंगम-स्थान था, ज्ञानसंगम का भी पवित्र स्थान बन गया-यह विचार कर वह फूले
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40 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग धार