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ये प्रभु-दम्पती कन्नड़ राज्य के राजा-रानी बनकर बार-बार जन्म लेते रहें । मैं और मुझ जैसे अन्यजन उनके चरण-कपल के भ्रमर बनकर बार-बार जन्म लें।" इतना कह मंच पर चढ़कर शिल्पी ने राजदम्पती को साष्टांग प्रणाम किया। शुरू-शुरू में जब वह बोलने लगे तो ऐसा लग रहा था कि वह हकलाते हुए बोलेंगे। परन्तु क्रमश: भावावेश में जब उनकी वाणी एक तन्मयता से निकली तो लोग उस भावधारा में ऐसे डबे कि उन्हें प्रकृतिस्थ होने में ही कुछ समय लग गया। इस कारण उनके प्रणाम कर वेदी से उतरने के पश्चात् ही तालियाँ बज सकीं। __अन्त में गंगराज प्रधान ने उन्हें सम्बोधित किया। उन्होंने राज्य की एकता को बनाये रखने के लिए जनता का आह्वान किया। उनका दीर्घकालीन अनुभव, संयम, आदि उनकी प्रत्येक बात में झलक रहे थे। वास्तव में उन्होंने लम्बा भाषण नहीं दिया, केवल विजयोत्सव की सफलता में जिन व्यक्तियों ने पूर्णतया योग दिया था, उन सभी को राजमहल की ओर से हार्दिक धन्यवाद दिया और कहा कि कन्नड़ भाषा, पोयसल सिंहासन, ये ही दो हमारे धर्म हैं। इतना कह उन्होंने महाराज से अनुमति प्राप्त की और सभा को विसर्जित किया।
___ दो-तीन दिनों में, विजयोत्सव के लिए आगत सभी लोग अपने-अपने स्थान को लौट गये।
जकणाचार्य की विदाई भी बहुत भाव-भीनी और बिना किसी धूमधाम के सम्पन्न हुई। विदा करते वक्त कहीं वेदना प्रकट न हो, इसलिए सभी बड़े गम्भीर रहे। अन्त में ओडेयगिरि के हरीश ने उठकर जकणाचार्य के पैर छुए और कहा, "सदा आपका मुझ पर आशीष बना रहे। कलाकार में आत्मविश्वास होना चाहिए, यह नहीं कि उसमें 'अहं' हो–यह बात मैंने अच्छी तरह आपसे समझी है।"
रानी पद्यलदेवी और उनकी बहनों ने भी आने की बात कही। शान्तलदेवी ने उन्हें सलाह दी, "सन्निधान यहाँ से प्रस्थान करेंगे, उसके बाद बाकी रानियाँ भी यहाँ नहीं रहेंगी। थोड़े दिन हम साथ रह लें- हमारी यह अभिलाषा है।"
पद्मलदेवी उनका यह आग्रह नहीं टाल सकी। उन्होंने यात्रा स्थगित कर दी।
यात्रा पर सन्निधान के रवाना होने के पूर्व एक दिन शान्तलदेवी ने महाराज बिट्रिदेन्त्र से विनती की, "एक बार बाहुबली के दर्शन कर आने की इच्छा है । सन्निधान अनुमति प्रदान करें।"
महाराज की स्वीकृति प्राप्त हुई।
राजदम्पती के साथ युवराज, युवसनी, छोटे विट्टिदेव, विनयादित्य, पद्मलदेवी और उनकी बहनें, रानी बम्मलदेवी, राजलदेवी और कुमार नरसिंह के साथ लक्ष्मीदेवी, इन भबको साथ ले जाने का शान्तलदेवी में कार्यक्रम बनाया। सभी तैयारियाँ हो चुकी
- 13 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार