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स्वयं अब मुक्ति के मार्ग पर, सुना है, अग्नसर होना चाहती हैं ? आप ही विरक्त हो जाएँ तो हम किसके लिए यह श्रम करें? राज्य अनाथ हो जाएगा न?''
"क्यों प्रधानजी? स्नेह-भार से दबकर बात कर रहे हैं न? मानव के प्रति मानव में जो प्रेम होना चाहिए, उसे मैं गलत नहीं कहती। परन्तु इस प्रेम में जड़ बनकर, विश्वनियम को भूलकर व्यवहार करना उचित नहीं लगता। मैं भी तो मानवी ही हूँ। अभ्यास से संयम की साधना करने पर भी, कभी-कभी वह ढीला पड़ जाता है। ऐसी दिलाई क्षणिक होने पर भी वह कुछ कह जाती है। प्रधानजी, क्या आप भी अधीर...?"
"बात सुनकर किसी के लिए भी आतंकित होना सहज है। मैं भी विश्वनियम को जानता हूँ। फिर भी आपके मन में इस तरह की चिन्ता उत्पन्न हुई तो लगता है कि किती व का आगा असर पड़ा है। मुझे मालूम है कि किसी बात को मन की गहराई में रखकर उसी में घुलते रहने का स्वभाव हमारी पट्टमहादेवीजी का नहीं है। इसलिए उस विचार को मन से दूर करें याही प्रार्थना करने के लिए आया हूँ।"
"मैंने पहले ही कहा न कि ऐसी अधीरता का होना क्षणिक मात्र है।" "ठीक, आश्वस्त हुआ। आज्ञा हो तो अब चलूँ?"
गंगराज चले गये । शान्तलदेवी सोचने लगीं, 'मेरा आत्म-विश्वास शिथिल हो रहा है। दसों दिशाओं में मन जब चक्कर कारता रहता है सब ऐसा लगना सहज है। स्वार्थ के वशीभूत हो जब मन चारों ओर मँडराने लगता है, तब उसका अधिक असर होता है । मन निर्लिप्त रहे तो उसे स्थिर रखना कठिन नहीं है। मेरे मन की तरह मेरे बच्चों का भी मन होता तो बात कुछ और ही होती । एक तरफ बच्चों के मन में संघर्ष, दूसरी तरफ सन्निधान का मानसिक असन्तोष, इन दोनों के बीच भविष्य क्या होगा, उसकी कल्पना नहीं कर सकती!...एक दिन सन्निधान के मुंह से एक बात निकली थी।...हाँ याद आयी : 'यदि ऐसा करेंगे तो राज्य को टुकड़े कर बाँट देने का-सा होगा न?' एक श्वेतछत्र के नीचे विशाल पोय्सल राज्य की स्थापना का सपना देखा था। जब वह सपना सच होने जा रहा है, तब उसे फिर बाँटना हो तो इस तरह राज्य विस्तार ही क्यों किया? बुजुर्गों से जो पाया था उसी को बचाये रखकर, सुख से रह सकते थे न? यों चारों ओर शत्रुओं को पैदा करके, सदा लड़ते हुए, धन जन की हानि करके, जीवन गुजारने की जरूरत क्या थी? चालुक्य पोय्सलों के आत्मीय कहलाते थे। फिर उनसे द्वेष क्यों बढ़ाया? अपना सर्वस्व त्यागकर सारी मानवता के कल्याण के लिए जीनेवाली बाप्मुरे नागियस्काजी का जीवन इस जीवन से श्रेष्ठ है न? द्वेष के लिए स्थान न देकर केवल प्रेम से जनता को एक करनेवाले उन प्रबोधचन्द्र विहार ने कितना अच्छा काम किया है और कर भी रहे हैं! जन-मन को परिष्कृत करके द्वेषरहित समाज का सृजन करना राज्य निर्माण से भी बड़ा काम है। मेरे जीवन को प्रकाशित करनेवाले और समय-समय पर मेरी आवश्यकताओं को पूरा कर उसे एक क्रमबद्ध रीति से विकसित
पट्टमहादेवो शान्तला : भाग चार :: 429