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"सहानुभूति? क्यों?"
"यह भी अच्छा सवाल है ! आपको पट्टमहादेवी बनकर रहना था। परन्तु आपसे छीन लेने वाली को वह मिला है।"
___ "किसी ने कुछ नहीं छोना । ग्रह तुम्हारा गलत विचार है। मैंने अपना सब कुछ स्वयं ही खोया है। लक्ष्मी, एक समय में भी तुम्हारी ही तरह लड़ाकू स्वभाव की थी। मेरी भी महत्त्वाकांक्षा थी, परन्तु उस उन्माद में मैं गलत काम पर बैठी। शरीर की लालसा को पूरा करने की पिपासा से मैंने ही अपने स्वामी की आहुति ले डाली। लक्ष्मी, हम स्त्रियों को एक से पाणिग्रहण कर लेने पर बहुत संयम से रहना चाहिए। ऐसा न हो तो जीवन मेरी तरह लूंठ बनकर रह जाएगा। मेरी बात मानो, भगवान् के बारे में या व्यक्तियों के बारे में तुम्हारे विचार कुछ भी रहें, तुम्हें महाराज का संगसुख चाहिए हो तो तुम्हें कभी उनका मन नहीं दुखाना चाहिए, खासकर इन दिनों में । उनके हामुंगल की तरफ जाने के निर्णय से यह स्पष्ट है कि वे कितने दुखी हैं। उस दुख को
और अधिक नहीं बढ़ाना है। बढ़ाने पर अनहोनी हो सकती है। इसलिए तुम्हारा चलना अच्छा होगा। मेरी इस अनुभव से कहीं बात का मान रखोगी, ऐसा मैं समझती हूँ।" यों कहकर रानी पद्मलदेवी ने दूर भविष्य की ओर संकेत किया। थोड़ी देर लक्ष्मीदेवी मौन बैठी रही। अन्त में एक दीर्घ नि:श्वास लेकर चलने की सम्मति दे दी, और कुछ नहीं बोली। पद्मलदेवी कृतकार्य होकर लौट आयीं।
लक्ष्मीदेवी के मन पर पद्मलदेवी की बातों ने अच्छा प्रभाव डाल दिया था। वह सोचने लगी, "इस धर्म की धुन में यदि कल पतिप्रेम खो देने की स्थिति आ जाए तो? आगे चलकर क्या साधा जा सकता है ? मैं स्वयं ही महाराज की उपेक्षा की पात्र बन जातं तो आगे चलकर मेरे बेटे का क्या होगा? अन्दर विद्वेष का भाव भड़कता रहे तो भी मुझे ऊपर से अभिनय करते रहना होगा? कभी-कभी लगता है कि वही ठीक है।..लेकिन अभी झुक जाऊँ तो आगे चलकर हमेशा झुककर ही चलना होगा। ऐसी स्थिति में क्या होगा? कौन साथ देगा उस समय? धर्म का भी त्याग करके, आत्मगौरव की भी बलि देकर मैंने क्या साधा?' यो उसका मन डांवाडोल हो रहा था। उसी मानसिकता में वह अपने पुत्र को साथ ले बेलुगोल गयी।
बेलुगोल की यात्रा यथाविधि सम्पन्न हुई। पता नहीं, भगवान् ने कौन-सी प्रेरणा लक्ष्मीदेवी को दी कि वहीं सबतिगन्धवारण बसदि में, शान्तिनाथ स्वामी के मन्दिर में, उसी नग्न बाहुबली की मूर्ति के सामने, किसी तरह की आपत्ति या अरुचि के बिना उसने चरणोदक और प्रसाद स्वीकार किया।
हर बार की तरह इस बार भी शान्तलदेवी ने गोम्मट-स्तुति का गान किया। इस बार स्वयं प्रेरित हो, राग का पहले से भी अधिक विस्तार से गायन किया जिससे अधिक समय लग गया। रेविमय्या गायन के आरम्भ से लेकर समाप्त होने तक समाधिस्थ
420 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार