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अधिक महत्त्वपूर्ण है। अधिकार से प्राप्त होनेवाली सारी सुविधाएँ मुझे प्राप्त हैं, लेकिन मेरे ही मुंह से यदि ऐसी बात निकलती है तो उसका कोई कारण है यह मानना चाहिए, आपको।" शान्तलदेवी ने कहा।
"तो क्या आप सुखी नहीं ?'' चामला ने सोधा सवाल किया।
"स्त्री को बँट जानेवाले प्रेम से कभी सुख प्राप्त नहीं होता। ऐसे लोग ही अधिक हैं जो वास्तविक सुख की ओर मन को प्रवृत्त नहीं करते और अधिकार को ही सबकुछ मानते हैं । एक साधारण स्त्री को जो सुख प्राप्त होना चाहिए था, वह भी मुझे प्राप्त नहीं हुआ यह तो मैं नहीं कहती, परन्तु वह पूरे समय तक नहीं मिला। जो सुख मिला था, उसे ही स्मृति में संजोकर मैं सुखी रहने की कोशिश करती हूँ।"
"मैंने पहले ही ज़ोर देकर कहा था कि बम्मलदेवी और राजलदेवी से सन्निधान का विवाह न होने दें।"
"आपने कहा था, मुझे मालुम है। परन्तु जिस पुरुष पर मैंने पूरा विश्वास किया उसकी इच्छाओं का ध्यान रखना मेरा कर्तव्य था अलावा इसके कुल राजनीतिक कारण भी थे। मैं पट्टमहादेवी न होकर मात्र एक साधारण स्त्री होती तो मेरा व्यवहार ही कुछ और तरह का होता। इसके साथ, अपने जीवन को सुखी बनाने के इरादे से, मुझे इस स्तर तक उठानेवाली महामातृश्री को मैंने जो वचन दिया था वह मेरे लिए अपने व्यक्तिगत सुख से भी अधिक मूल्यवान है। मुझे उस वचन का पालन करना है। इन सबके लिए मैं पश्चात्ताप नहीं करती। जो परिस्थिति है उसी में, मुझे जो मानसिक सुख चाहिए उसे पाकर, मैं अपना जीवन जी रही हूँ। यहाँ अब काफी रह लिया है, यहाँ का मेरा कर्तव्य पूरा हो गया--यह अन्दर की आवाज जिस दिन सुनूँगी उसी दिन मैं इस देह से मुक्त हो जाऊँगी।''
"यह क्या? देह से मुक्ति? मन यहाँ तक जा पहुँचा है?"
"इस राजमहल में समरसता की सम्भावनाएं कम हैं। मैं राज्य में तथा अधिकृत स्थानों पर रहनेवाले कुछ लोगों के व्यवहार तथा विचारों को जानती हूँ, मुझको उन्हें ठीक करने की कोशिश करनी चाहिए, इसके बदले उनसे दूर हटना ही ठीक जंच रहा है। इस विशाल राज्य को एक मजबूत नींव पर प्रतिष्ठित करना है तो सबको खुश रखकर काम करवाना होगा। किसी को दूर करने से बुराई ही अधिक होगी। इसलिए न चाहने पर भी ऐसे लोगों को हंसते-हँसते कार्य प्रवृत्त कर चलाते रहना पड़ेगा। ऐसे लोग अधिक संख्या में नहीं हैं, यही गनीमत है। परन्तु ऐसे लोगों की संख्या को बढ़ानेवाले लोग भी हैं, अगर यह बात प्रमाणित हो गयी तब तो भविष्य के बारे में कुछ भी कहना कठिन होगा। अब हमारा यह इतना छोरा विनय ही छोटी रानी के बारे में आग-बबूला हो रहा है, मैं उसके मन को बदलने में अपने को असमर्थ पा रही हूँ। आज का यह असन्तोष ही कल विद्वेष का कारण बन सकता है। इसके फलस्वरूप
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 425