Book Title: Pattmahadevi Shatala Part 4
Author(s): C K Nagraj Rao
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 419
________________ अभी पट्टमहादेवी को समझा नहीं। एक समय था जब मैं पट्टमहादेवी से तुमसे भी अधिक द्वेष करती थी। वह इसे जानती थीं। फिर भी उन्होंने बदले में द्वेष-भाव नहीं रखा । जब भी मौका मिला, अच्छी ही सलाह दी। अकल की बातें सिखाती रहीं। उनके कहे अनुसार मैं चलती तो आज मेरा ही क्यों, मेरी बहनों को भी स्वर्ग जैसा सुख मिलता। जब मैंने पट्टमहादेवो को समझा, तब तक मेरा सर्वनाश हो चुका था। उसके बाद तो उनकी मेरे प्रति सहानुभूति बराबर बनी रही है। कभी भी मेरे प्रति द्वेष नहीं रहा।" "तो क्या सबकी भाग्य-रेखा लिखनेवाली ब्रहा हैं वह? किसी छोटे बच्चे से कहें तो वह आपकी बातों पर विश्वास भी कर लेगा। और फिर, आपका जमाना ही कुछ और था। आपके जमाने में धर्म के कारण संघर्ष नहीं था। अब मैं अन्यधर्मी जो ठहरी, इस दर्द को आप समझ नहीं सकी। श्री आचार्यजी के प्रभाव के सामने झुकना पड़ा तब जाकर मेरे विवाह के लिए स्वीकृति मिली। जब से इन्होंने मुझे देखा तभी से इन्हें मुझसे ईर्ष्या है। मेरे रूप ने सन्निधान का हृदय जीत लिया था। श्री आचार्यजी के आशीर्वाद का बल सन्निधान को चाहिए था। उनके आशीर्वाद का बल न होता तो यह राज्य इतना विस्तार पाता? पूरी पृष्ठभूमि की जानकारी के बिना आप यह सब बात कर रही हैं। आपको मालूम नहीं ? कौन नंगादेव आये थे इनकी बेटी की बीमारी दूर करते? अभी परसों देख आयो हैं न? वैसे ही नग्न खड़े थे न ? गर्भगृह के बिना, खुले में खड़ी की हुई पत्थर की मूर्ति यदि भगवान् बन जाए तो आदमियों से भी अधिक संख्या भगवानों की हो जाएगी। बेटी की प्राणरक्षा करनेवाले का स्मरण तक नहीं। इतनी कृतघ्न हैं यह । फिर भी अपने बारे में अच्छा प्रचार करा लेती हैं। शरम तक नहीं आती। एक बात में मेरा दृढ़ निश्चय है। चाहे कुछ भी कहें, मैं अपने धर्म की रक्षा करती रहूँगी। इस सर्वधर्म-समता पर मेरा कोई विश्वास नहीं । बायाँ हाथ इसी शरीर से लगा हुआ है सही, पर कोई उस हाथ से खाना खाता है ? जबसे मैं कुमार नरसिंह को माँ बनी, तब से यहाँ की रीति-नीति ही बदल गयी है। यहाँ सब के मन में यह डर समाया हुआ है कि सन्निधान मेरे साथ रहेंगे तो किसी को कुछ मिलेगा नहीं। इसीलिए उन दोनों बिल्लियों को उनके साथ भेज दिया है। आप ही कहिए, मैं पुत्रवती हूँ। पहले मुझको पट्टमहादेवी बनाना चाहिए या उन बाँझों को? आप लोग ठहरी, सो मैं भी ठहर गयी। नहीं तो मैं तो कभी की तलकाडु चली गयी होती!" किसी ने कुछ नहीं कहा। सभी दासियाँ लक्ष्मीदेवी की गर्जना सुनती रहीं। स्तब्ध हो देखती रहीं। यह सब सुनने के लिए शान्तलदेवी वहाँ उपस्थित नहीं थीं। उस दिन कार्यवश विनयादित्य भी दोङगद्वल्ली गया हुआ था। अनन्तर मौन में भोजन समाप्त हुआ। इसके दो ही दिन बाद लक्ष्मीदेवी बेटे और बाप के साथ तलकाडु के लिए रवाना हो गयी। पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 423

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