________________
"कौन हैं ?" "जब स्वयं पट्टमहादेवीजी ही मौन हैं, तब उनका नाम हम कैसे लें?" "न, यों ही कुतूहलवश पूछा, जानने की कोई जरूरत नहीं।"
"यह जगह ही ऐसी है, किसी-न-किसी तरह का कुतूहल पैदा करती है । पहले बल्लाल महाराज ने अपनी तीनों रानियों के साथ इसी स्थान पर बैठकर यह जिज्ञासा की थी कि किसके गर्भजात को 'सिंहासन पर बैठाना चाहिए। यह बात बहनों के आपसी झगड़े में खत्म हुई, और तब वह सिंहासन स्वप्न में भी इच्छा न रखनेवाले हमारे वर्तमान महाराज को प्राप्त हुआ।"
"तो अब भी तो सिंहासन के उत्तराधिकारी की बात उठी है ! इस वजह से बाधाएँ भी तो उपस्थित हो सकती हैं, मंचण!" डंकण ने, जो अब तक मौन श्रोता बना बैठा था, पूछा।
"सिंहासन पर बैठनेवाला कौन है, वह सवाल अभी है कहाँ, शिल्पीजी? पट्टमहादेवीजी के ज्येष्ठपुत्र श्रीवल्लालदेव ही उसके असली अधिकारी हैं। वही रीति के अनुरूप भी है। इसके पीछे जनता का बल भी है।"
"जनता का सिंहासन से क्या सम्बन्ध? वह उस घराने का अपना हक है।" इंकण बोला।
"राजमहल जनता से अलग नहीं, जनता के बिना राज्य नहीं-पट्टमहादेवी जी ऐसा ही मानतो हैं। ऐसी दशा में जनता की राय का भी मूल्य होगा।"
"तो यह सब हो-हल्ला इन श्रीवैष्णवों को खाली उछल-कूद है?"
"मैंने पहले ही कह दिया न? उनमें भी एकता नहीं। कुछ लोग लालची हैं, कुछ पा जाने की आशा रखने वाले स्वार्थी । ऐसे ही उस तरफ झुके हैं, बस।"
"कहीं संघर्ष न हो जाए?"
"जब तक पट्टमहादेवीजी हैं, तब तक कोई संघर्ष नहीं होगा। वह ऐसा मौका ही नहीं देंगी।
"इतना भर रहा आये तो काफी है। परिवार में रहकर भी आज वह तपस्वी जैसी हैं, अपने हृदय के स्वामी को ही दूसरों के लिए छोड़ रखा है, और स्वयं निर्लिप्त रह रही हैं । खैर, बातों-ही-बातों में हमें समय का खयाल ही न रहा, शाम हो चली है। चलें, अब।" मंचण बोले।।
तीनों अपने मुकाम पर ठहरे रहे। दूसरे दिन प्रातःकाल विजयनारायण और मण्डूकगर्भ चेन्निगराय स्वामी की पूजा-अर्चना कर, सौम्यनायिकादेवी के दर्शन-पूजन के बाद भोजन कर वे वहाँ से राजधानी की ओर रवाना हुए।
मानव अपने अविवेक से अपने आपको तो संकट में डाल लेता है, साथ ही
पट्टमहादेवी शान्तला ; भाग चार :: 4(1)