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साथ हमारा राज्य खुशहाल बनेगा। मैं श्रेष्ठ हूँ, मेरा धर्म ऊँचा है, मेरा सम्प्रदाय उत्तम है, मेरा भगवान बड़ा है—यों प्रत्येक व्यक्ति विचार करने लगे और अपने से भिन्न सभी को तुच्छ समझने लग ती राष्ट्र में एक भयंकर उथल-पुथल मच जाएगी, खुशहाल राज्य नरक बन जाएगा।
"आप सभी महानुभावों से इस भरो सभा में एक बात और हम निःसंकोच कह देना चाहते हैं। हम सुन रहे हैं कि लोग हमारे और रानियों के बारे में तरह-तरह की बातें करते फिर रहे हैं। आम तौर पर ऐसी बातों से यदि राष्ट्र को हानि नहीं होती, तो हम उनकी परवाह नहीं करते । हम जन्मतः जैनमतावलम्बी हैं । हमारे माता-पिता, दोनों ने अविचलित होकर हमारे वंश के मूल-पुरुषों के विश्वास के साथ जिस धर्म का अनुसरण किया था, उसी का हमने भी निष्ठा के साथ किया है। हमारे राज्य में हमने धर्म से भी अधिक विश्वास, श्रद्धा और दक्षता को प्राथमिकता दी। कौन किस धर्म का अनुयायी है, किस वंश का है, इन विचारों की अपेक्षा वह कितना विश्वसनीय है, कितना कार्यकुशल है. कितना नि:स्पृह है-इन्हीं गुणों के आधार पर हम उन्हें स्थानमान-पद आदि देते आये हैं। इसीलिए यह राज्य प्रगतिशील हैं, यह राजपरिवार भी इसी रीति से प्रगति पर है। हमारी पट्टमहादेवीजी की माताजी एक ऊँचे स्तर की जिनभक्त हैं, जब कि उनके पिताजी महान् शिवभक्त हैं। उनका वह परिवार दूध-सा पवित्र है। भिन्न धर्मीय होने पर भी वह परिवार कितनी सुगमता से, कितने सुन्दर ढंग से चला है ! इसका कारण है परस्पर विश्वास । धर्म व्यक्तिगत है, उसे पारिवारिक जीवन में या राष्ट्र के जीवन में बाधक नहीं बनना चाहिए। हमारा अपना भी परिवार विभिन्न धर्मियों से सम्पन्न है। हम श्री आचार्यजी के प्रभाव में आये और व्यक्तिगत रूप से वैष्णव धर्मानुयायी होकर मुकुन्द-पादारविन्द के सेवक बने। परन्तु हमारी पट्टमहादेवीजी व्यक्तिगत रूप से जैन धर्म का त्याग न करते हुए भी अपने पातिव्रत्य का पालन करती आ रही हैं। इस परिवार में किसी को कष्ट या दुख न हो, स्वयं इस प्रकार आचरण करती हुई हमें भी उसी तरह चलने की प्रेरणा देती रही हैं। ये सब बातें आप सभी लोगों को विदित हैं, फिर भी उन्हें दोहराने में हमारा कुछ प्रयोजन है। धर्म को मानव-जीवन के विकास में सहायक बनना चाहिए, न कि उसके जीवन को नष्ट करने का कारण । हमारे राज्य में सभी धर्मावलम्बी रहते हैं। हमने शिवालयों, केशवालयों और जैन-मन्दिरों को किसी तरह के भेदभाव के बिना ग्राम-दान किया है। धर्म विशेष के अनुयायी होकर भी हम राजाओं के लिए सभी धर्म और सभी देवी-देवता समान रूप से आदरणीय हैं। धर्म और देवी-देवता प्रत्येक की अपनी-अपनी कल्पना के तथा विश्वास के आधार पर रूपित है। प्रत्येक को अपने-अपने आचरण तथा आराधना के अनुसार वैयक्तिक रूप से उसमें तृप्ति भी मिलती है। धर्म और देवाराधना व्यक्तिगत है। परन्तु राष्ट्रहित सामूहिक है, सार्वभौमिक है। राष्ट्रहित की दृष्टि में यह व्यक्तिबाद बाधक न बने।
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :; 413