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के अपने इरादे से, हम और रानी बम्मलदेवी दोनों फिलहाल हानुंगल- बंकापुर में निवास करेंगे। राजलदेवीजी अपनी इच्छा के अनुसार चाहे जहाँ रह सकेंगी। इन सभी बातों की हमें यों सार्वजनिक रूप से घोषणा की आवश्यकता नहीं थी। यह सब राजमहल तथा राजकाज से सम्बन्धित विषय हैं, परन्तु अभी हाल में जब हम युद्धक्षेत्र में थे तब, और वहाँ से लौटने के बाद भी, हमें बहुत कुछ इधर-उधर की बातें सुनने में आयी हैं। इन्हें रोकने के लिए अब हम जिस मार्ग का अनुसरण कर रहे हैं, उससे बढ़कर कोई उत्तम मार्ग नहीं है। यह सब निश्चित एवं स्पष्ट हो जाने के कारण किसी के मन में भी किसी तरह की शंका नहीं रह जानी चाहिए। जो प्राप्य नहीं, उसकी कोई आशा न करे। महाजनों के सामने इन सभी बातों को स्पष्ट करने का उद्देश्य केवल यही है कि आप सभी न्याय के पक्षपाती हैं।
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'इस बार के इस युद्ध में हमारे दण्डनायक बिट्टियण्णा ने विशेष बुद्धि-कौशल और स्फूर्ति दिखाकर विजय दिलाने में सूत्रधार का काम किया है। उन्हें इस समारोह में वरिष्ठ दण्डनायक के विरुद से विभूषित करने की राजमहल की इच्छा है।" यह कहकर उन्होंने बिट्टियण्णा की ओर देखा ।
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बिट्टियण्णा उठ खड़ा हुआ। उसने पहले पट्टमहादेवी को और फिर महाराज को प्रणाम किया। उसके बाद बुजुर्ग मादिराज, पुनीसमय्या, नागिदेवण्णा, माचण और डाकरस आदि सभी को प्रणाम किया। फिर उपस्थित जन समुदाय के सामने हाथ जोड़कर बोला, "जन्मते ही अनाथ मुझे कभी उस बात का अनुभव तक न होने देकर, मेरा पालन-पोषण कर मुझे बड़ा बनानेवाले इस राजदम्पती का एक अर्थ में मैं ही ज्येष्ठ पुत्र हूँ। मेरे इन शब्दों को सुनकर कोई यह न सोचे कि यह सुझा रहा हूँ कि मैं इस राज सिंहासन का वारिस हूँ । अधिकार का लालच बहुत बुरा है। वह मनुष्य को बुरे रास्ते पर ले जाकर गर्त में डालनेवाला है। इन सभी बुजुर्गों के समक्ष मुझे जो यह गौरव प्रदान किया गया है, वह मुझमें अहंकार पैदा करके मेरे पतन का कारण न बने। इन सभी बुजुर्गों से हैसियत में मैं बड़ा हूँ, इन सभी बुजुर्गों से मुझमें बुद्धि और योग्यता अधिक है- यदि इस तरह का घमण्ड हो जाए तो मुझे पतन से कोई नहीं बचा सकेगा। इसलिए विनयपूर्वक यह निवेदन करना मेरा धर्म है कि इस प्रशस्ति से मुझे दूर रखें। इस तरह की प्रशस्ति के हकदारों, जो हमसे वरिष्ठ होंगे, को इससे निराशा हो सकती है, उनमें असूया भी उत्पन्न हो सकती है; यह राज्य के हित में नहीं होगा। परन्तु जो भी और जब भी राजदम्पती से मुझे कुछ मिला है, उसे मैंने कभी इनकार नहीं किया है। वे कुछ भी देते हैं तो उसके पीछे मेरे प्रति उनका वात्सल्य भाव रहता है। उनका यह स्नेह प्रेम आप सभी का प्रेम बने और आप सभी मुझे आशीष दें कि मैं सेवक की ही भावना से आखिरी दम तक निष्ठा के साथ इस शासन की सेवा कर सकूँ, और यही मेरा आजीवन व्रत बने।" इतना कहकर उसने राजदम्पती को पुनः प्रणाम किया ।
पट्टमहादेवी शान्तला भाग चार: 415