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बुलवाएं तो क्या हुआ? बेटी बाप को और दीदी अपनी छोटी बहन को तो सब कुछ बता ही देगी। यह सब एक ही थैले के चट्टे-बड़े हैं। मैं चुप हूं, इसलिए ऐसा सब हो रहा है। मेरे यह पिताजी ऐसे हैं कि कितना भी समझाओ, समझते ही नहीं। उन्हें इस बात का डर है कि कहीं देश-निकाला न दे दें। इस डर से मुझे मौन रहने को विवश कर दिया है। पहले तरह-तरह की आशा-आकांक्षाओं को मेरे मन में उत्पन्न करके, अब पीछे हटने की सलाह दे रहे हैं । इस राज्योत्सत्र को समाप्त होने दें। सभी जनों के लौट जाने के बाद, मैं अपनी करामात न दिखाऊँ तो मेरा नाम लक्ष्मी नहीं। विनोत हो झुकने पर सभी पीठ पर म्यूसा मारते हैं। इसलिए इसलिए...' यह विचारधारा वहीं रुक गयी। विचार यों रुक जाएँ तो आगे मार्गदर्शन कौन करे? उसके पिता को छोड़ कर दूसरा कौन है ?...पेलापुरी में रहते समय उसने उसे एक आखिरी अस्त्र सुझाया था। परन्तु तव तक प्रतीक्षा के दिन गुजारें कैसे? मन में चाहे कैसी भी अशान्ति, अतृप्ति रहे उसे प्रकट न होने दें, इसके अनुरूप स्वांग रचें और व्यवहार करें-पिताजी ने यहीं तो कहा था । यही ठीक है। ऐसा ही करना होगा। परन्तु इस दिखावे का सन्तोष, स्वागत
और मिलनसारी का स्वाग रचना आसान नहीं था। फिर भी जितना बन पड़े वह कर रही थी। इसी उधेड़-बुन में अचानक सूझा कि सनी पद्मनदेवी को छेड़ देने से उसका काम शायद हल्का हो जाए। पर हो कैसे यह? पद्मलदेवी अकेली कभी मिलती ही नहीं थी। अकेली को बुलवा लें, यह भा सम्भव नहीं था। अपनी इस सूझ को कार्यान्वित करने के लिए वह मौके की तलाश में रहने लगा।
विजयोत्सव का दिन आ ही गया।
सारा दोरसमुद्र आनन्दोत्साह से भर गया। राजमहल की परम्परा अनुसार सभी अनुष्ठान कर चुकने के बाद, अपराह्न में सार्वजनिक सभा का आयोजन था। उसमें महाराज बिट्टिदेव के समक्ष उस दिन सभी रानियों, सचिवों और सभी दण्डनायकों के प्रतिज्ञा-वचन स्वीकृत करने का निर्णय मन्त्रालोचना सभा में हुआ था। उसके अनुसार पट्टमहादेवी शान्तलदेवीजी से लेकर सभी रानियों, प्रधान गंगराज, राजकुमार और दण्डनायक-एक-एक करके सभी ने प्रतिज्ञा-बचन दुहराये। प्रतिज्ञा का मजमून पट्टमहादेवीजी के गुरु प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव और यदुगिरि के श्रीमदाचार्य के प्रतिनिधि, दोनों ने मिलकर तैयार किया था। वह इस प्रकार था : "पोय्सल वंश जैन मुनीन्द्र सुदत्ताचार्य के आशीर्वाद के प्रभाव से मूल-पुरुष सल महाराज के द्वारा शशकपुर में आरम्भ हुआ। तब से लेकर अब तक, एक रीतिबद्ध मार्ग का अनुसरण करते हुए यह वंश दिन-प्रतिदिन प्रवद्ध हो आज समूचे दक्षिणा-पथ में एक प्रबल राज्य के रूप में विकसित हुआ है । इसने गंगवाड़ी, नोलम्बवाड़ी, वनवासी आदि सभी कन्नड़ भाषाभाषी प्रदेशों को एक श्वेतछत्र की छाया में लाकर जनता में आर्थिक सम्पन्नता, एकता, धर्म-सहिष्णुता एवं राष्ट्रप्रेम आदि को बढ़ाकर, इतिहास में एक चिरस्थायी स्थान प्राप्त
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 411