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न समाये । एक दिन शाम को वे बेटे के साथ, युगची नदी के तीर पर बैठे थे। इधरउधर की बातें करते हुए उसी सिलसिले में पिता ने पुत्र से कहा, "देखो डंकण, सार्वजनिक हित ही पट्टमहादेवीजी का ध्येय है। ऐसा देवी के खिलाफ लोग षड्यन्त्र करें ? इससे ज्ञात होता है कि मनुष्य कितना गिर चुका है ?"
" स्वार्थ ही इसका मूल है न ? दूसरे क्या सोचते हैं, उनकी क्या इच्छा है, हमारे उनके विचार समान हैं या नहीं, यदि नहीं तो क्यों, क्या आपस में समझा-बुझा नहीं सकते, समन्वय नहीं कर सकते ? आदि बातों पर हम विचार ही नहीं करते। इसीलिए ऐसा सब होता है। है न? आपने इस राजमहल के बारे में सारी बातें बतायी हैं। विजयनारायण की प्रतिष्ठा के अवसर पर क्या सब गुजरा सो भी मुझे ज्ञात है। इस सबका कारण धार्मिक दुराग्रह है। उस छोटी रानी को किस बात की कमी है ? कहीं किसी कोने में तिलकधारी वेदपाठी से शादी कर पड़ी रहती। अब वह रानी है, पट्टमहादेवीजी की ही कृपा से यह पट्टमहादेवीजी की उदारता थी सो भी आपने बताया था। उसे तो जिन्दगी भर उनका कृतज्ञ होना चाहिए। लेकिन कृतज्ञ होना तो दूर... '
"गरीब एकदम धनी हो जाए, तो आधी रात छतरी सानने लगता है- यह लोकोक्ति नहीं सुनी ? यह भी कुछ ऐसा ही है। छोटी रानी को अभिलाषा है कि भविष्य में उनका बेटा सिंहासन पर बैठे।" बीच में मंचण बोला ।
"ऐसा कहीं सम्भव है ? आगे चलकर पट्टमहादेवीजी का बड़ा बेटा सिंहासनारूढ़ होना चाहिए, परम्परा यही है ।"
"परम्परा की चर्चा करनेवालों के लिए धर्म का त्याग करना उचित होगा ? वह धर्मदर्शी यों कानाफूसी करते फिरते हैं। उनका यही कहना है कि भविष्य में श्रीवैष्णव मतावलम्बी को ही पोटसल सिंहासन मिलना चाहिए।"
"तुम्हें यह बात कैसे मालूम हुई, मंचण ?"
"जहाँ भी श्रीवैष्णव हैं, वहाँ वे आपस में ऐसा ही कुछ कहते सुने गये हैं।" "तो क्या ये लोग पट्टमहादेवीजी को गौरव की दृष्टि से नहीं देखते ?" "उनके समक्ष विनीत भक्त बनते हैं। पीठ पीछे उनका ढंग ही अलग है। वे धर्म को भुनानेवाले हैं, न्याय और मानवीयता से उन्हें कुछ नहीं लेना-देना । "
"वैसे गुरु के ये कैसे शिष्य ?"
"सभी ऐसे नहीं हैं। वास्तव में हृदय से पट्टमहादेवीजी की प्रशंसा करनेवाले और उनका आदर करनेवाले श्रीवैष्णवों की संख्या भी कम नहीं। पर हाँ, श्रीवैष्णव कन्या को रानी होने का मौका दिया, इस वजह से कुछ जैनी भी उनसे असन्तुष्ट हैं।" "ये भी कैसे अजीब लोग हैं! कुछ भी करो ये असन्तुष्ट ही रहेंगे। यह धर्म का दोष नहीं, रीति या परम्परा का भी दोष नहीं। यह इन लोगों की अपनी कुटिल प्रकृति का दोष है। यही इसका कारण है। आप लोगों को जो बातें मालूम होती हैं,
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार: 407