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क्या दण्ड मिलना चाहिए, मालूम है ? अनाथ की तरह जहाँ से आयी थी, वहीं वापस भेज दिया जाय।"
"आप भी जोश में आकर कह रही हैं। सच है, सबको ठीक करने की क्षमता पट्टमहादेवीजी में है। वे नीच-से-नीच शत्रु को भी अपनाकर उसे सही रास्ते पर ले आती हैं।"
"कभी-कभी लगता है कि वे आवश्यकता से अधिक क्षमाशील हैं। जूतों को सिर पर कहीं रखा जाता है ? शिव-विष्णु एक ही धर्म के अनुयायियों के आराध्य हैं। जैनधर्म की अनुयायी होकर भी पहमहादेवीजी सभी धर्मों के प्रति आदर रखती हैं। उसके एक अंश बराबर भी उक्षा र उस छोटीनी हो तो सार स्टिस कभी हो हो नहीं सकेगी।"
"उससे आपको क्या हानि ? धर्म-बुद्धि से आपने एक पवित्र और स्थायी कार्य करवाया है। कोई एक इधर नहीं आया तो उसके लिए आपको दुखी नहीं होना चाहिए। आपके इस महान कार्य से आपका समचा वंश पुण्य का भागी होगा, सदगति पाएगा।"
"उतना ही पर्याप्त है। मैं बूढी जो ठहरी, जो जी में आया बोल गयी। पट्टमहादेवी जी के आप बहुत आत्मीय हैं, इसलिए कह बैठी। इस मन्दिर में आपके दर्शन पा सकी न, इससे अधिक मुझे और क्या चाहिए! चलिए, भगवान् महादेव की आरती सम्पन्न कराएँगे।" कहती हुई केलेयब्बे ने गर्भगृह की ओर कदम बढ़ाये। बात पूरी होते देख केतमल्ल भी गर्भगृह की ओर चल पड़े।
जकणाचार्य और ईकण दोनों उनके पीछे-पीछे चलने लगे। दोनों मन्दिरों में महादेवजी की आरती के सम्पन्न हो जाने के बाद, केलेयब्वे और केतमल्ल वहाँ से चले गये। जकणाचार्य, डंकण और हरीश-तीनों ने एक बार मन्दिर की परिक्रमा की, फिर स्थपति के मुकाम पर आकर बैठ गये।
ना ने जकणाचार्य से कहा, "पूज्य ! इसमें मेरा अपना कुछ नहीं। सब कुछ आप ही का अनुकरण है। दोनों मन्दिरों को एक समान रूपित करने का प्रयत्न भर मेरा है। समय-समय पर पट्टमहादेवीजी के दिशा-निर्देश का लाभ मिलता रहा । इन भित्तियों के परिष्करण एवं समन्वय का काम उन्हीं के दिग्दर्शन का फल है। आप भी कुछ सलाह देंगे तो उसका हृदय से स्वागत करूँगा।"
"सभी परिष्कृत ढंग से रूपित जब है तो सलाह की गुंजाइश कहाँ? अनुकरण होने पर भी, जैसा कहा, अनुकरण नहीं। मैंने भी अनुकरण किया है । परम्परा ही हमारे लिए आधार-भूमि है, ऐसी हालत में अनुकरण ही मूल है। फिर भी रूप और अलंकार भित्र होते हैं। हमारी रुचियाँ और परिकल्पनाएँ अलग-अलग होती हैं, यह विविधता उसी का फल है। कलाकार वर्तमान से अधिक भविष्य की ओर विशेष दृष्टि रखता हैं। नहीं तो वह कला आगे की पीढ़ियों के लिए आकर्षक नहीं बन पाती है। पहले
404 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार