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इससे बढ़कर सौभाग्य की बात मेरे लिए और क्या हो सकती हैं! "
जकणाचार्य ने कहा, "माँ, आपका संकल्प ही अत्यन्त उत्तम है। उसके अनुरूप आपको तृप्ति भी मिली। इसमें हम मात्र निमित्त हैं। हमारा सहयोग स्वीकार करनेवाली सूत्र - शक्ति-स्वरूपिणी तो हमारी पट्टमहादेवीजी हैं। उन्हीं के कारण बेलापुरी के केशव भगवान् तथा यहाँ के पोय्सलेश्वर और शान्तलेश्वर भगवान् के भव्य मन्दिर बने हैं। शिव, विष्णु, और जिनदेव में किसी तरह की भिन्नता न देखनेवाले उस सत्व - पूर्ण व्यक्तित्व की प्रेरणा न होती तो कुछ नहीं हो सकता था। उनके सत्संग से अपने जीवन को सुधारने की आकांक्षा रखनेवाले हम सब बड़े भाग्यवान हैं। "
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'यह बात मैं हजार बार कहूँगी। मैं अपनी ससुराल इस राजधानी में जबसे आयी तब से सभी रानियों को देखा है। कबरसीजी, राजी एचलदेवजी, उनके काद मरियाने दण्डनायक की पुत्रियाँ जो रानियाँ बनीं, उन सबको देखा है। प्रत्येक अपनेअपने ढंग की थीं। केलेयब्बरसीजी बहुत ही गम्भीर प्रकृति की थीं। उन्हें बातें करते बहुत ही कम सुना । कभी बोलना होता तो एक-दो बातें ही मुँह से निकालतीं, वे भी मोती जैसी होती । राजमहल के बाहर उन्हें किसी ने कभी नहीं देखा। एचलदेवीजी भी उनकी तरह उतनी ही गम्भीर प्रकृति की थीं, परन्तु उनकी उपस्थिति से दस लोगों की उपस्थिति का भान होता था । बहुत ही दयालु । सरलता इतनी कि साधारण लोगों के साथ भी आत्मीयभाव से व्यवहार करती थीं, कभी कोई कठोर वचन उनके मुँह से निकलते ही न थे। कभी साल दो साल में एक बार मन्दिर में दर्शन करने राजमहल से निकलती तो उनके दर्शन का भाग्य हमें भी मिल जाया करता था। उनके बाद की रानी पद्मलदेवी की चर्चा तो सारे नगर में चलती रही। रानी क्या बनीं, अपने को बहुत बड़ा मानती थीं परिचितों से बातें करना भी अपना अपमान समझती थीं। उनकी बहनें उनसे कहीं अच्छी थीं, उनमें घमण्ड नहीं था। मगर ये पट्टमहादेवीजी, पहले जैसी रहीं अब भी वैसी ही हैं। जहाँ काम हो वहीं वे हाजिर हैं; छोटे-बड़े, ऊँच-नीच का कोई विचार नहीं | सबसे प्रेम से मिलती-जुलती हैं, फिर भी अपनी गम्भीरता के कारण, लोकमानस में आदरणीय एवं गौरवपूर्ण स्थान उन्होंने प्राप्त कर लिया है। उनका व्यक्तित्व ही विशिष्ट है। इसीलिए कहा कि हजार-हजार बार कहूँगी। क्या उनकी तरह सभी रानियाँ हो सकती हैं ?"
"पाँचों उँगलियाँ एक सी नहीं होतीं। सभी की चिन्ता क्यों की जाय ? मैंने एक ही रानी को देखा है। उनकी वजह से मुझे साक्षात्कार मिला है। फिर दूसरे की चिन्ता ही क्यों ?"
" फिर भी बगल में बैठी देखते हैं तो कैसा प्रतीत होता है, जानते हैं ?" "कैसा प्रतीत होता है ?"
" जैसे सिंहासन पर चूहे पद मिल सकता है, मगर पद के अनुरूप आचरण न
402 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार
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