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"ऐसा है तो तुम्हें जैसा सूझे, करो। विजयोत्सव की समाप्ति तक हममें कोई इस बारे में कुछ न सोचे। बाद में देखा जाएगा। तब शायद छोटी रानी तलकाडु या यादवपुर जाएगी।"
"वह कहीं रहे, उससे हमें क्या? हम न तो अन्धे हैं, न बहरे। बाहर रहकर राजकाज देखते रहने से अब हमें काफी अनुभव हो गया है। तुम किसी सरह की चिन्ता मत करो। विजयोत्सव तक चुपचाप देखते रहेंगे कि यहाँ क्या सब होता है।"
यों निश्चय करके उन्होंने अपनी बातचीत को पूर्ण विराम दे दिया।
दो दिन बाद फिर न्याय-मण्डल बैठा। निर्णय सुनाया गया। सिंगिराज और गोज्जिगा को आजीवन कारावास! उनके साथ सम्मिलित चार सहकर्मियों को सबके सामने लाठी प्रहार और फिर देश निकाला! शेष चार को छुटकारा! पनसोगे के इन्द्र को छह साल का कारावास !
निर्णय सुनाने के बाद भी उधर चाविमय्या के अधीनस्थ गुप्तचर मुद्दला के हत्यारों की खोज में लगे रहे। इधर राजधानी में विजयोत्सव की तैयारियाँ तेजी से चल रही थीं।
इस अवधि में शान्तलदेवी अपना अधिक समय इन युगल-मन्दिरों में व्यतीत करती रहीं। जकणाचार्य और डंकण के लिए इससे अधिक प्रिय और क्या कार्य हो सकता था? हरीश ने उनकी उपस्थिति का पूरा लाभ उठाया। पट्टमहादेवीजी के आदेश से इस मन्दिर में देव-समन्वय के कार्य को परिष्कृत किया गया। जकणाचार्यजी की उपस्थिति के कारण अन्य शिल्पी भी बड़ी स्फूर्ति से काम में लगे हुए थे। एक दिन मन्दिर के निर्माता केतमल्ल ने, और महादेवी लिंग की प्रतिष्ठा के बाद नन्न-जीवन प्राप्त करनेवाली उनकी माता ने आकर जकणाचार्य को प्रणाम किया और कहा, “अब तक जो कार्य हुआ है, उसके अलावा कुछ और करने का सुझाव देंगे तो उसे भी करवाएंगे।"केतपल्ल की माँ वृद्धा थीं फिर भी युवाओं जैसा उत्साह उनमें था। कहने लगी, "देखिए स्थपतिजी, मैं समझती थी कि इस प्रतिष्ठा के पहले ही ईश्वर मुझे संसार से उठा लेगा। मैं अन्तिम साँसें गिन रही थी जब यह प्रतिष्ठा हुई। ईश्वर ने अनुग्रह किया, मेरी इच्छा पूर्ण हुई। देखिए, भगवान् कित्तमा करुणामय है। इस मन्दिर का निर्माण आप ही द्वारा हो, यही मैं चाह रही थी। उस समय आपने कृपा नहीं की। फिर भी इन युवा स्थपतिजी ने अपने सारे बुद्धिचातुर्य का उपयोग कर बड़ी श्रद्धा और भक्ति से इसका निर्माण किया है। हमारी पट्टमहादेवीजी ने रात-दिन एक कर इन स्थपति के माध्यम से इन मूर्तियों को सजीव रूप दिया है। इसे देखकर मुझे बहुत सन्तोष हुआ है। इस अवसर पर ईश्वर की कृपा से आप भी यहाँ पधारे हुए हैं और इसे पूर्ण रूप दे रहे हैं। मेरी शुरू-शुरू की जो अभिलाषा थी वह भी पूरी हो गयी। यह सब देखने की खुशी का अनुभव करने के लिए ईश्वर ने मुझे जीवित रखा है न?
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 401