________________
करना उस पद का अपमान ही तो करना है। उन्हें देखकर प्रजा-जन में गौरव की भावना उत्पन्न न हो और पीठ-पोछे लोग उनके बारे में उल्टी-सीधी कहते फिरें तो राजमहल के गौरव पर बट्टा नहीं लगेगा?"
"तो आपका मतलब है कि अभी ऐसा कुछ घटित हुआ है।"
"स्थपतिजी, हमारे विचारों की परवाह किसे है? हम तो जल्दी ही परलोक सिधारनेवाले हैं। क्या यह कोई साधारण बात है कि छोटी रानी पट्टमहादेवीजी के विरुद्ध षड्यन्त्र रचे? ऐसा करके वह किस रौरव नरक में जाएगी?" केलेयब्बे के स्वर में आवेश था।
"ये सब कहीं-सुनी बातें हैं-सत्य से दूर। बाहरी राज्यों के बैरियों के द्वारा फैलाया हुआ विद्वेष भाव।..."
"स्थपसिजी, आपको ज्ञात नहीं। आप कहीं दूर पर रहते हैं। जब महाराज और पट्टमहादेवी जी आपके यहाँ आये थे सब यह छोटी रानी अपने पिता को साथ लेकर वेलापुरी गयी हुई थी।" केलेयब्बे ने कहा। केतमल्ल ने संकेत से बताना चाहा कि इन सब बातों को कहने को क्या आवश्यकता, मगर कह नहीं सके।
"सुना है मनौती चुकाने के लिए गयी थी?"
"वह तो एक बहाना है। सुना है वहाँ बाप-बेटी ने पट्टमहादेवीजी के बारे में जीर के बर्वा की। उन्होंने उन पर ऐसा आरोप लगाया है कि वे महाराज को जादूटोने से अपने वश में कर जैसा चाहे नचाती रहती हैं। कुछ ऐसा कर दिया है कि महाराजं उनको छोड़कर शेष सभी रानियों को धूल बराबर समझते हैं। इतना ही नहीं, श्रीवैष्णव धर्म को पोय्सल राज्य से ही दूर कर देने के नाना प्रकार के उपाय रचती रहती हैं। इसके लिए इस बार व्यापक रूप से एक धार्मिक आन्दोलन चलाने की तैयारियाँ कर रही हैं। इस बार के विजयोत्सव को इसकी भूमिका तैयार करने की सोच रही है। वह छोटी रानी इस तरह अण्ट-सण्ट बातें कर रही है, यह सब सुनने में आया है।"
"आपको ये सारी बातें कैसे मालूम हुई?" "मेरा भाई राजमहल में गुप्तचर है।" "गुप्तचर इस तरह दूसरों को यातें नहीं बताते !"
"ऐसा क्या? मुझे यह मालूम नहीं था। उसे यह सब सुनकर बहुत गुस्सा आ गया होगा, सो अपना जी हल्का करने के लिए कह दिया होगा। छोटी रानी के बाप के बारे में भी उसके अच्छे विचार नहीं हैं।"
"कुछ भी हो, उन्हें ये सारी बातें आपसे भी नहीं कहनी चाहिए थीं । उन्हें समझा दीजिए कि राजमहल की बातों को यों कभी किसी के समक्ष प्रकट नहीं किया करें।"
"ऐसी बातों को छिपा रखने से पट्टमहादेवीजी का बड़ा अहित होगा, स्थपतिजी! यह सब तो सारी प्रजा को मालूम होना ही चाहिए। उस छोटी रानी को इस दुर्बुद्धि का
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 403