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पट्टमहादेवी ने ही बात उठायी। कहा, "प्रधानजी और मन्त्रिजन हमारे पास युद्ध - शिविर से फिर कोई पत्र नहीं आया। युद्ध की स्थिति क्या है सो भी हमें ज्ञात नहीं हुई। उधर से कम-से-कम सप्ताह में एक पत्र तो आ ही जाया करता था। इस बार एक पखवाड़ा बीत गया, कोई पत्र नहीं। इसलिए लगता है कि हमला कुछ तीव्र गति से चल रहा होगा। ऐसी हालत में यहाँ की बातें, यह न्याय-विचार और उसके ब्यौरे आदि की खबर देना ठीक होगा या गलत, पहले इसी पर विचार कर लिया जाए । इसलिए आप लोगों को बुलवाया है। अलावा इसके, यह न्याय-विचार खुलेआम न होकर सीमित लोगों के सामने ही हुआ है, कुछ बातों पर अभी विचार नहीं भी हो सका, इसलिए उनके बारे में भी विचार कर लेने की मेरी इच्छा है। " गंगराज बोले. "जैसा सन्निधान कर रही हैं श्चत ही तेज हुई होंगी, इसीलिए खबर नहीं भेज सके होंगे। मेरी समझ में इस न्याय- विचार का ब्यौरा भेजने की आवश्यकता नहीं। छोटी रानी और राजकुमार सुरक्षित राजधानी पहुँच गये, कुशल हैं -- इतना मात्र लिखकर चिट्ठी भेज देना फिलहाल काफी है।" "यह समाचार उसी दिन भेज दिया गया, जिस दिन वे यहाँ पहुँची थीं।" शान्तलदेवी ने कहा ।
की
" तब तो उधर से ही खबर मिलने तक प्रतीक्षा करना अच्छा है।" गंगराज
बोले ।
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'हम महासन्निधान के स्वभाव से परिचित हैं। तात्कालिक रूप से ही सही, किसी भी बात को उनसे छिपाये रखना हमारे लिए अच्छा नहीं। खासकर इस षड्यन्त्र की बात की प्रतिक्रिया क्या हुई है, इसे यहाँ बैठकर हम कल्पना नहीं कर सकते। वैसा सोचना ठीक भी नहीं होगा। इस षड्यन्त्र की बातों का प्रचार काफी हो चुका है। वह दो मुखी रहा, परन्तु वह मात्र बिजूका निकला, आदि बातें विस्तार से लिखकर पत्र भेजना उचित लगता है।" नागिदेवण्णा बोले ।
"इसमें छिपाने की भला कौन-सी बात है ? लेकिन युद्ध की इन परिस्थितियों में सन्निधान को यह समाचार भेजा जाय या नहीं, यही मुख्य प्रश्न है। मुझे प्रधानजी की राय सही मालूम पड़ती है। इसका एक और भी कारण हैं। हम अभी सिंगिराज और गोज्जिगा के किस्से पर पूरा विश्वास नहीं कर पाये हैं, मुझे ऐसा लगता है। इस बात पर भी विश्वास नहीं हो रहा है, जैसा उन लोगों ने कहा कि इस अफवाह को फैलाने में मूल प्रेरक जयकेशी है। इसलिए पहले इसके मूलस्रोत को जान लिया जाए तब एक स्पष्ट चित्र महासन्निधान के सामने पेश करना ठीक होगा। अभी यह अधूरी बात पेश करना उचित प्रतीत नहीं होता।" मादिराज ने कहा ।
" आपको क्यों ऐसा लगा, मादिराजजी ?" गंगराज ने पूछा।
"
'जब न्याय-विचार हो रहा था तब आपने या सचिव नागिदेवण्णा ने धर्मदशीं
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार 369