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निर्माण की प्रेरणा दी। मैं नहीं रहूँगा, पर जो काम मुझसे करवाया वह चिरस्थायी रहेगा। लोग शिल्पी को चाहे भूल भी जाएँ कोई चिन्ता नहीं, लेकिन शिल्प में रूपित कला से आनन्दित हों तो वही शिल्पी का स्मारक होता है। लोग आगे चलकर शंका भी कर सकते हैं कि कभी जकणाचार्य नामक कोई था भी या नहीं। परन्तु मेरै अविवेकपूर्ण जीवन के किस्से को शायद ही कोई भूल सके। जनश्रुति में यह किस्सा बना रहे तो कोई गर्ग नहीं ! पेशा नाम - रसे, पह पहातपूर्ण नहीं पढ़महादेवीजी द्वारा प्रेरित यह शिल्प अवश्य स्थायी रहेगा। उनकी कलापूर्ण प्रज्ञा की यह देन लोक-विख्यात हो, इतना ही पर्याप्त है। मुझ जैसे हजारों शिल्पियों को प्रेरित कर शिल्पियों का सृजन करनेवाली शिल्प की देवी हैं पट्टमहादेवीजी।
वे और महासन्निधान, दोनों ने मेरे निमन्त्रण को स्वीकार कर यहाँ तक पधारने का अनुग्रह किया है। इसके लिए मैं और मेरी धर्मपत्नी तथा मेरा पुत्र उनके अत्यन्त कृतज्ञ हैं। इतना सब कहने पर भी, नवजीवन पाने पर भी, मैं अपने पुराने स्वभाव से मुक्त नहीं हो पाया। अपने संकल्प के अनुसार अपने इस गाँव क्रीडापुर में केशवमन्दिर का निर्माण किये बिना अन्यत्र कहीं जा सकना मेरे लिए सम्भव नहीं था। उससे भी असन्तुष्ट न हो उन्होंने मेरी उस हठ को मान्यता देकर इस प्रतिष्ठा-समारोह में पधारकर हमारे इस छोटे-से गाँव को हर्षोल्लास से भर दिया है।
हमारी उन्नति उनकी उदारता का फल ही है। उनकी कृपादृष्टि सदा हम पर बनी रहे, यही प्रार्थना है। आगे कभी भी उनकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं करूँगा, यह पचन देता हूँ।" इतना कहकर उन्होंने झुककर प्रणाम किया।
उपस्थित सभी जन सुनने को उत्सुक थे कि महाराज कुछ कहेंगे। प्रतिष्ठा समारोह के समय भी महाराज ने कुछ नहीं कहा, न ही पट्टमहादेवीजी ने। चार-छह क्षण इसी तरह मौन में गुजरे।।
ओडेयगिरि के हरीश धीरे से उठे । राजदम्पती की ओर देखा, और बोले, "दो शब्द की अनुमति देने की कृपा करें।"
बिट्टिदेव ने शान्तलदेवी की ओर प्रश्नार्थक दृष्टि से देखा। उन्होंने कहा, "हम भगवान् की सेवा में उपस्थित हुए हैं, अपनी प्रशंसा के वचन सुनने नहीं। इसलिए इस तरह की बातें अब काफी हो चुकी हैं।"
हरीश ने कहा, "यह प्रशंसा नहीं, कृतज्ञता-ज्ञापन है।"
"एक ही बात है। ऐसी बातों से हमें कुछ उलझन ही होगी।" शान्तलदेवी ने कहा।
"एक बार अवसर दीजिएगा। मेरी बात यदि सन्निधान को ठीक न लगे तो मैं खुप हो जाऊँगा।" हरीश बोले।
"उनकी तरह आप भी तो हठीले ही हैं न? अच्छा, कहिए।" शान्तलदेवी ने कहा।
394 :: पट्टमहादेवी शान्तला ; भाग चार