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क्रीडापुर उत्साह से छलका जा रहा था। जकणाचार्य के आग्रह से राजदम्पती वहाँ एक सप्ताह तक रहे । प्रतिष्ठा समारोह की सारी व्यवस्था एवं कार्य का निर्वहण ग्रामीणों ने ही किया था। राजदम्पती की विदाई का आयोजन जकणाचार्य ने अपने व्यय से किया।
उस समारोह में चुने हुए कुछ प्रमुख जन ही थे। इर्द-गिर्द के प्रमुख पटवारी, सैनिक, बड़े व्यापारी, शिल्पी, पण्डित आदि ऐसे ही कुछ और । खान-पान की सुन्दर व्यवस्था थी। आत्मीयता से पूर्ण रहो यह विदाई!
विदाई से पहले जकणाचार्य और लक्ष्मीदेवी ने राजदम्पती को वस्त्र भेंट किये। महाराज को एक जोड़ी रेशम की धोती और पट्टमहादेवीजी के लिए एक पीताम्बर तथा कंचुकी मंगल-द्रव्यों के साथ भेंट स्वरूप दी, तथा पैर छूकर प्रणाम किया। हरीश को भी त्रस्त्र भेंट किया गया।
जकणाचार्य ने राजदम्पती से अनुमति लेकर कहा, "सम्मान्य महाराज और जगन्महती पट्टमहादेवीजी, देश के बुजुर्गों और हितैषी बन्धुओ ! मैं इस दिन के लिए आजीवन भूल नहीं सकूँगा, क्योंकि मेरा जीवन अपने स्वरूप को खोकर भंवर में फैंसी नैया की तरह डगमग कर रहा था। कार लगना असम्भव ही था। उसे सुरक्षित रूप से पार लगानेवाले ये ही सजदम्पती हैं। खासकर इसका श्रेय पट्टमहादेवीजी को जाता है। मैंने सोच लिया था कि मेरा सारा जीवन व्यर्थ गया। मेरे हृदय में अँधेरा छा गया था। उसमें प्रकाश का उद्भव करके, नयी चेतना भरकर उन्होंने मेरे जीवन को जीने लायक बनाया। मनुष्य की मानसिक स्थिति को धन, अधिकार अथवा और किसी तरह का प्रलोभन जब परिवर्तित नहीं कर सकता, तब एकमात्र उसका अन्तःकरण हो उसे बदल सकता है। यह सत्य है कि मैं जिद्दी था, मगर आलसी नहीं। जीवन से विरक्ति उत्पन्न हो गयी थी। परन्तु मेरी कल्पनाशक्ति बन्द नहीं हुई थी। स्वभाव कुछ विचित्र हो गया था। जीवन द्वन्द्रों का एक जमघट-सा हो गया था । किसी का वशवर्ती न था, किसी की दया पर जीना न चाहता था। स्वेच्छा से जीवन-यापन करता था। ऐसे भी लोग थे जो मुझे पागल समझते थे। मैं स्वयं को प्रकट करने के लिए तैयार नहीं था। अनाम बना रहना चाहता था। मेरा अपना स्वभाव इसके लिए सहायक ही रहा । जीतने की सामर्थ्य होते हुए भी किसी विवाद या चर्चा में न उलझकर अपने काम से मतलब रखा। भगवान् श्री रामानुज के आकर्षण में फँस जाने के डर से यहाँ से छिपकर भाग निकला था। यहाँ पट्टमहादेवी के हाथ में शिशु-जैसा बन गया ! उनके व्यक्तित्व का प्रभाव ही ऐसा है। उन्होंने मुझमें एक नये जीवन का रोपण किया, मुझमें नयी चेतना डाली । परिणामस्वरूप अपने अविषेक को मैंने स्वयं पहचाना, और अपने कलुषित मन का शुद्धीकरण किया। मैंने अपने परिवार का त्याग कर दिया था। उन्होंने उसके साथ मिलाकर पो पारिवारिक जीवन को फिर से सुखी बनाया। एक नयी वास्तु-रचना के
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :- 393