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"वैसे ही जैसे अब उसको धर्मदर्शी बनवा दिया गया।" "वहाँ मात्र प्रेमभाव कारण है, यह कैसे कहा जा सकता है, अप्पाजो?" "ऐसा नहीं तो और क्या? रानी के पिता होने के सिवा उसमें और क्या योग्यता है।" "फिर भी इस नियुक्ति में केवल प्रेमभाव कारण नहीं है।" "फिर और क्या हो सकता है?" "वह पट्टमहादेवीजी और सन्निधान से सम्बन्धित है।" "तुपको मालूम नहीं?" "उन्हीं से पूछकर जान लें तो अच्छा होगा न, अप्पाजी।" "ठीक, तुमसे पूछने से कोई लाभ नहीं।" "क्यों, नाराज हो गये अप्पाजी?" "नाराज नहीं, तुमको समझना ही मुश्किल है!" "क्यों?" "जो जानते हो वह भी नहीं बताते ।"
"मैं एक परिचारक हूँ। मुझ पर कम-से-कम तीन पीढ़ियों से इस राजमहल ने विश्वास रखा है। मैंने उस विश्वास को यथाशक्ति सुरक्षित रखा है। सेवा-निवृत्त होकर आराम से जीवन-यापन करने के लिए ही सन्निधान और पट्टमहादेवीजी ने मुझे जरि दान कीबीपी लाही, महान मेरे किस काम का? इसलिए मैंने तो आखिरी दम तक पट्टमहादेवीजी और उनकी सन्तान की सेवा करते रहने की अनुमति मांग रखी है।...आप गलत न मानें तो एक बात कहूँ?"
"क्या?"
"अप्पाजी, अब आप अपने मन में ऐसे विचार न लाया करें। आपकी अभी चढ़ती उमर है। प्रबुद्ध होकर परिपक्व होनेवाला मन है आपका। अभी अनुभव प्राप्त करने की ओर प्रवृत्त होना चाहिए, न कि विपरीत दिशा में। फिलहाल कोई अप्रिय धारणा आपके भीतर बैठ गयी है। उसे निकाल देना ही अच्छा है। इसलिए पट्टमहादेवीजी
और सन्निधान की वापसी तक विजयोत्सव के लिए नियोजित कामों में, प्रधानजी तथा दूसरों से भी बातचीत करके, लग जाएँ।"
आगे बातचीत करने के लिए विनयादित्य को कुछ सूझा नहीं। उसने रेविमय्या को विदा किया।
उधर क्रीडापुर में केशव भगवान् की प्रतिष्ठा यथाविधि सम्पन्न हुई।
392 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार