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'एक समय था कि जब ऐसी बात सुन लेता तो खून खौल उठता था। अब ऐसा नहीं होता। वैसे इस तरह के स्वभाव ने प्रवर स्थपति जकणाचार्यजी और स्वयं मेरा भी भला किया है। उनके हठीलेपन से उन्हें सन्निधान का स्नेह-प्रेम मिला, और मुझे उनकी उदारता का परिचय। जकणाचार्यजी के जिद्दी होने के कारण उनकी अपनी जिन्दगी में उत्पन्न सन्देह था। मेरी जिद के मूल में मेरा अहंकार रहा आया । हम दोनों का यह हठीलापन दूर कर हमसे एक महान् कार्य करवा लेनेवालों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करना हमारा कर्तव्य नहीं ? भुझे तो दीरसमुद्र के युगल-मन्दिरों के स्थपति के पद की प्राप्ति से भी अधिक आनन्द इन प्रवर शिल्पीजी के मिलाप से हुआ है। जब शिल्पी डंकणजी निमन्त्रण देने गये तब उनकी कही बातों की सत्यता जानकर मेरा दिल भर आया था। उनमें इस तरह की गुणग्राहकता है, इसकी जानकारी मुझे नहीं थी । आज मेरे समस्त अपराधों को क्षमा करके मुझे आशीर्वाद दें कि मैं कीर्तिशाली बनूँ और कृतकार्य होऊँ।" कहकर हरीश ने जकणाचार्य के पैर छुए ।
कणाचार्य का हृदय भर आया। उन्होंने उन्हें कन्धे से उठाया और गाढ़ आलिंगन में बाँध लिया । " गुण सदा पूजनीय हैं। कला में आयु या वर्ग-भेद के लिए कोई स्थान नहीं । बेलापुरी में मैं अपने पुत्र के सामने झुक गया था न ? अगर मैं यह सोचकर कि उसने मेरा अपमान किया उससे द्वेष करता, तो मैंने पट्टमहादेवीजी का जो स्नेह पाया है, उसके योग्य कदापि नहीं रहता। आपने इस युगल मन्दिरों के निर्माण में जो वैविध्य दर्शाया है, सुना है उसमें आप पूर्ण रूप से सफल हुए हैं। कला स्थायी होकर रुक न जाए, उसे विकसित होते रहना चाहिए, प्रगति पथ पर आगे बढ़ते रहना चाहिए।" स्थपति जकणाचार्य ने कहा ।
"मेरे लिए आज का यह दिन महान् सौभाग्य का दिन है। मुझे इस बात का विश्वास ही नहीं यह कि मैं कभी किसी दिन आपकी इस आत्मीयता का पात्र बन सकूँगा। अभी हाल में पट्टमहादेवी का ही आदेश था कि उनके साथ वहीं आऊँ। मैं तो इस अवसर की प्रतीक्षा में ही था।" हरीश ने कहा ।
"यह कला-संगम राष्ट्र की प्रगति का प्रतीक है।" शान्तल देवी ने कहा । प्रतिष्ठा समारोह के लिए शिवगंगा के धर्मदर्शी आये थे। उनका अनुरोध स्वीकार कर राजदम्पती दोरसमुद्र के रास्ते में शिवगंगा भी गये। जकणाचार्य, लक्ष्मीदेवी और डंकण राजदम्पती के साथ रहे। शान्तलदेवी और बिट्टिदेव दोनों अपनी जिन्दगी में दूसरी बार एक साथ शिवगंगा के पहाड़ पर चढ़े। वहाँ टीले पर स्थापित वृषभ की परिक्रमा करके, वहीं थोड़ी देर के लिए बैठ गये।
शान्तलदेवी ने पूछा, "स्थपति जकणाचार्यजी, इस क्षेत्र के बारे में आपकी क्या राय है?"
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'यह पहाड़ ही एक महान् शिल्प है, पट्टमहादेवीजी ! इसके शिल्पी स्वयं भगवान्
पट्टमहादेवी शान्तला भाग चार 395