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करना चाहिए । अब जैसे सलाह आयी, वैसे ही उसे लौटा लिया जाए।"
"इस न्यायपीठ पर बैठने में मुझे संकोच मालूम पड़ता है", नागिदेवण्णा ने धीमे स्वर में कहा।
"आपकी इस तरह की प्रज्ञा ही आपके उस स्थान पर बैठने की योग्यता का प्रमाण है। जिम्मेदारी जो समझ सकते हैं उन्हीं से उसका निर्वहण हो सकता है। अब आपके सामने जो न्याय-विचार की बात है, उसका विमर्श होने पर कौन-कौन दोषी पाया जाएगा सो कोई भी नहीं कह सकता। पहले एक बार, जब मैं छोटी थी, तब बलिपुर में एक न्याय-विचार हुआ था। उस समय प्रभुजी ने जो बात कही थी, वह अब भी मुझे याद है।"
" यानी ?" "मेरे ससुरजी, सन्निधान के पिताजी।" "क्या कहा था?"
"न्यायपीठ के सम्मुख राजा, युवराज भी सामान्य प्रजा के समान हैं। न्यायपीठ के प्रति गौरव दिखाना होगा। न्यायपीठ की आज्ञा का पालन करना होगा। चाहे हम हों या दूसरे कोई भी हों, आपको इस विषय में किसी के प्रभाव या संकोच के वशवः नहीं होना चाहिए। जिसको चाहें गवाही देने के लिए बुलवा सकते हैं, न्याय-विचार कर सकते हैं। सन्निधान भी इस नियम को मानते हैं।"
"जो आज्ञा।" नागिदेवण्णा ने कहा। उनके मन में अभी भी उथल-पुथल बनी ही रही। फिर भी इस सान्त्वना से उनमें एक नयी स्फूर्ति आ गयी। इस बार न्यायविचार की सभा में निष्पक्ष सत्यपूर्ण न्याय ही होना चाहिए, ऐसा मन-ही-मन सोचते हुए नागिदेवण्णा राजदम्पती को प्रणाम कर वहां से निकले।
386 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भा'। चार