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"सन्निधान की क्या आज्ञा है ?" "मन्त्रीजी, कहिए।" विट्टिदेव ने क नागिदेवष्णा मौन रहे ।
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'क्या बात है, मन्त्रीजी ?" शान्तलदेवी ने पूछा।
नागदेवाणा ने शान्तलदेवी की ओर मात्र देखा, फिर महाराज की ओर । "मन्त्रीजी सेवा-निवृत्त होने की इच्छा से निवेदन कर रहे हैं।" बिट्टिदेव ने
कहा।
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" क्यों, राजमहल की सेवा से परेशान हो गये ?" शान्तलदेवी ने प्रश्न किया। " परेशानी नहीं, अदक्षता। मैं यदि अपना कर्तव्य ठीक तरह से करता तो यदुगिरिं में यादवपुरी के लोगों का विरोधियों से मिलना सम्भव ही नहीं होता। यही समझा था कि वहाँ वाले सब सात्त्विक पुरुष हैं। यों समझे बैठे रहने के कारण अब यह न्यायविचार करना पड़ रहा है। यदि मैं सतर्क रहकर सब पर निगरानी रखता तो आज इस स्थिति का मौका न आता।" नागिदेवण्णा ने कहा ।
" आपने ऐसा क्यों समझा ?"
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श्री आचार्यजी के अनुग्रह के पात्र जितने हैं ये सब सात्त्विक हैं, हमारा यहो मनोभाव रह आया ।"
" पहले से ही धर्म के नाम पर भेद पैदा हो जाने की बात जनता में फैल रही थी। यह जानते हुए भी आपके मन में ऐसी भावना क्यों पैदा हो गयी ?"
"
'उस समय बहुत ऊँचे स्तर के लोगों के नाम का दुरुपयोग किया गया था न ?” "ऊँचे स्तर के लोगों के नाम ? या ऊँचे स्तर पर रहनेवाले लोगों के?"
"दोनों कह सकते हैं। मैंने समझा था कि वह उसी हद तक है, और वहीं समाप्त हो गया हैं। नीचे तक इस तरह बात फैलाने का काम करने से उन्हें कोई वैयक्तिक लाभ भी नहीं है। वास्तव में वे खुशहाल भी हैं। अपना-अपना काम करते हुए अपने अनुष्ठान में निरत रहकर सेवा में लगे रहेंगे, यही मेरी धारणा थी। अब मालूम होता हैं कि यह कितनी बड़ी गलती थी। मेरी इस गलती के लिए मेरो निवृत्ति हो उचित दण्ड है।"
"देखिए, आपने अनेक न्याय मण्डलों के सदस्य रहकर बहुत से निर्णय दिये हैं। निश्चित साक्ष्य और आधार के बिना आपने कभी किसी को दण्ड दिया है ?" "नहीं ।"
"ऐसी हालत में आपके बारे में भी वही नियम लागू हैं। आपने गलती की है, इसका साक्ष्य और आधार जब तक न मिले तब तक दण्ड कैसा ? अर्थात् निवृत्ति कैसे मिलेगी ? इसके अलावा आप अब एक अत्यन्त उच्च स्तर के न्यायपीठ के सदस्य हैं I न्याय-विचार पूरा नहीं हुआ है। उसे पूरा होने दीजिए। बाद में विचार करेंगे कि क्या
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार 385