Book Title: Pattmahadevi Shatala Part 4
Author(s): C K Nagraj Rao
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 385
________________ 1 ...➖➖➖➖➖➖➖➖ | बम्मलदेवी और राजलदेखी दोनों रानियों ने न ले जाने पर कोई असन्तोष प्रकट नहीं किया परन्तु छोटी रानी लक्ष्मीदेवी अन्दर ही अन्दर जलने लगी थी, 'वहाँ स्थापित होनेवाले देव केशव हैं। वह तो मेरे इष्टदेव हैं। मेरे गुरु के अत्यन्त प्रिय देव हैं। उनकी मूर्ति प्रतिष्ठा के लिए मुझे न ले जाकर स्वयं ही गयी है!... पट्टमहादेवी राजमहल के लिए भले ही बड़ी हो सकती हैं, अपने इष्टदेव के लिए अन्यधर्मी से मैं ही बड़ी हूँ। फिर भी वही गयी हैं तो इसके पीछे जरूर कोई राज है। महाराज अकेले जब साथ रहेंगे, तब उनके कान भरेंगी जिससे मेरा सर्वनाश हो जाए।... अभी यह जो न्यायविचार चल रहा है, पता नहीं, इसका फल क्या होगा, इससे क्या- क्या निकलेगा और किस-किस पर क्या प्रभाव पड़ेगा ?... अब कुछ न करूँ तो मेरा अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा। मेरे पिताजी भी अपमानित होकर कहीं भाग जाएँ, ऐसी स्थिति पैदा हो सकती है। इसलिए मुझे भावी हित की दृष्टि से कुछ-न-कुछ रास्ता खोजना ही होगा। उनके वहाँ से लौटने से पहले अपने पिताजी से क्यों न परामर्श ले लूँ? उन्हें काफी अनुभव भी हैं।... परन्तु यहाँ हम पर गुप्तचरों को लगाया गया होगा। हमें कहीं अन्यत्र जाना होगा।' इस तरह उसके मन में तरह-तरह के विचार उठ रहे थे। उधर तिरुवरंगदास किसी तरह की प्रतिक्रिया दर्शाये बिना चुप बना रहा। फिर भी उसका दिमाग चलता रहा। वह अपने ही ढंग से सोचता रहा। इस न्याय विचार के समय जब भी श्रीवैष्णवों के विषय में बात उठती, उसके मन में कुछ विचित्र भाव 'उठा करते और क्षण भर में लुप्त भी हो जाते। इसे वह जानता भी था, फिर भी उसे 'यह सन्तोष था कि उसके अन्तरंग की बात दूसरों को मालूम नहीं हुई। उसने कल्पना नहीं की थी कि विनयादित्य की उस पर बराबर नजर लगी हुई है ।... तिरुवरंगदास ने उसे अबोध लड़का ही समझ रखा था। वह इस बात से कुछ-कुछ खिन्न भी था कि केशवजी की प्रतिष्ठा पर महाराज उसे न ले जाएँ तो कोई हर्ज नहीं, लक्ष्मीदेवी और कुमार नरसिंह को न ले जाना, यह तो बहुत बड़ी गलती है ! महाराज और पट्टमहादेवी के रवाना होने के दूसरे ही दिन रानी लक्ष्मीदेवी ने प्रधान गंगराज के पास खबर भेजी, "अपने कुमार के लिए एक मनौती मान रखी हैं, इसलिए बेलापुरी जाना है। इसके लिए व्यवस्था करें। पिताजी भी साथ जाएँगे।" प्रधानजी ने सलाह दी, "ऐसे अवसर पर सन्निधान भी साथ रहें तो उचित होगा ।" लक्ष्मीदेवी को झूठ का कोई सहारा नहीं मिल पाया था। उसे लगा कि मनौती की बात न कहकर कुछ और कहती तो अच्छा होता ! परन्तु अब तो बात मुँह से निकल चुकी थी, इसलिए उसने कहा, "आपकी सलाह तो ठीक ही है। परन्तु मनौती मैंने मानी उसे मुझे ही पूरा करना है। वास्तव में मैंने पिताजी से पूछा था, उन्होंने कहा कि मनौती पूरी करने के लिए माननेवाले का रहना ही मुख्य है। इसका यह मतलब नहीं पट्टमहादेवों शान्तला : भाग चार: 389

Loading...

Page Navigation
1 ... 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458