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"तब तो शीघ्र ही न्याय-विचार का कार्य समाप्त करके, बाद में कोई शुभ दिन विजयोत्सव के लिए निश्चित कर सकते हैं। तुरन्त पत्र भेजकर बिट्टियण्णा को बुलवा लेना चाहिए।"
"वैसा कर सकते हैं। न्याय-विचार कब होगा?" "सन्निधान स्वीकार कर लें तो दो-तीन दिन में ही शुरू कर सकते हैं।" "ठीक।"
बिट्टियण्णा के पास पत्र गया। न्याय-विचार के लिए दिन निश्चित हुआ। अब की बार भी यह न्याय विचार सार्वजनिक रूप से न होकर, पहले जैसा ही सीमित हो, यह पट्टमहादेवीजी की राय थी अतः महासन्निधान के समक्ष उसी न्याय-पीठ के द्वारा न्याय-विचार की व्यवस्था की गयी। कुछ बड़े पदाधिकारियों और गुप्तचरों को छोड़कर अन्य किसी को वहाँ प्रवेश नहीं था। पट्टमहादेवी, तीनों सनियाँ, बल्लाल, छोटे बिट्टि, विनयादित्य, हेगड़े, मारसिंगय्या और राज-परिवार के बन्धुवर्ग में शामिल तिरुवरंगदास वहाँ उपस्थित हुए।
सिंगिराज, गोजिगा, बोरगा इन लोगों के फिर से बयान लिये गये। पहले न्यायविचार के समय इन लोगों ने जो बयान दिये थे, उन्हीं का पुनरावर्तन हुआ। सिंगिराज ने बोरगा के समक्ष भी झूठ कहा था। उससे, मुख्य गवाह और प्रमुख साक्षियों के वक्तव्य से इतनी बात प्रकट भी हुई थी कि बदला लेने के लिए जयकेशी स्वयं इन सबको धन देकर इनके द्वारा यह सारी हलचल मचा रहा है। परन्तु बंकापुर के हमले के वक्त उस रात किले पर स्वयं जो बात सुन चुके थे, उनमें और इस न्याय-विचार से जो बातें मालूम हुई, उनमें कोई मेल नहीं बैठ रहा था। खुद कानों सुनी तथा इस न्याय-विचार से निकली, दोनों में कौन-सी बात ठीक है, इसे जानना बिट्टिदेव की अब मुख्य चिन्ता थी। किले पर बातचीत करनेवाले दोनों सिपाही आपस में जो बात कर रहे थे, वह तो किसी के छेड़ने या उकसाने पर कही गयी बातें नहीं थीं। उन बातों में कुछ तो सचाई होनी चाहिए! इसलिए उस नये गुप्तचर कण्णमा को बुला लाने का आदेश दिया गया।
कण्णमा आया और शपथ ली। गंगराज ने पूछा, "तुम पोयसल गुप्तचर हो?" "हाँ, अब मैं इस राजमहल का गुप्तचर हूँ।" "अब पर जोर देकर कह रहे हो, इसके माने?" "इसके कोई विशेष माने नहीं, नया भी हुआ हूँ। पहले दूसरा धन्धा था मेरा।" "पहले क्या करते थे?" "मैं एक वीथिनाटक करने वाला तमाशबीन था।" "कहाँ पर?"
376 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार