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मिलेगा।"
"जब भी विजय होती है हल निषसत तो जाते है. है।"
"उसी प्रसंग में सन्निधान विट्टियण्णा की बुद्धिमत्ता की बात कहकर उसे जो नया पद देने जा रहे हैं, यह भी घोषित कर देंगे। यह सब तो ठीक है। परन्तु एक बात मेरी समझ में नहीं आ रही है!"
"क्या?"
"यही, जब आप सब लोग किले पर चढ़कर काला कम्बल ओढे छत्त को दीवार से सटकर बैठे थे, और जब जयकेशी के सिपाही बातचीत कर रहे थे, तब आपने बताया कि कोई स्त्री हंस पड़ी थी। उस स्त्री का पता आप लोगों ने नहीं लगाया?"
"भई, हमें तो पता है। बाकी के बारे में हम नहीं कह सकते।" "यानी रानी बम्मलदेवी..."
"हाँ। निकट रहने पर भी इस तरह हँसी मानो कहीं दूर पर कोई हँस रही हो। उन लोगों को हमारे बारे में सन्देह उत्पन्न हो, इससे पहले ही उन्हें वहाँ से भेज देने के लिए रानी ने यह चाल चली थी।"
"सो उनको भी सम्मानित-पुरस्कृत होना चाहिए। उनकी तरकीब से विशेष गड़बड़ी के बिना उन शहतीरों को निकालने में सहायता मिली।"
"सच है। क्या पुरस्कार दिया जाए?"
"रिश्ते से बम्मलदेवी बाकी रानियों से बड़ी हैं। अर्थात् मेरे बाद वे ही बड़ी रानी हैं। इसलिए बम्पलदेवी को पट्टमहादेवी बनाने का अनुग्रह करें।"
"देवि, यह बात हमारी समझ में नहीं आती। जब पट्टमहादेवी हमारे प्राणों के बराबर है तब किसी और को..."
"आगे चलकर यह चर्चा का विषय न बने, इसलिए अवसर मिलते ही सन्निधान इसकी घोषणा करेंगे। यह एक व्यावहारिक दृष्टि होगी।"
"समझ गया। हमने छोटी रानी को राजधानी से दूर रखने का आदेश दिया था। परन्तु तुमने पहले ही चेता दिया कि उसकी दृष्टि कहीं पट्टरानी के पद पर न हो। इसके लिए हम कृतज्ञ हैं।"
___ "किसी को किसी से दूर रखने की मेरी कतई अभिलाषा नहीं। योग्यता को मान्यता देना मात्र मेरा उद्देश्य है। परम्परा का पालन करना भी जरूरी है, यह भी मैं जानती हूँ।"
"सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे, यही न! अच्छा, वही करेंगे।" "तो विजयोत्सव के लिए दिन निश्चित करें। सभी प्रमुखों को बुलवाना होगा।"
"ऐसी बड़ी धूम-धाम की जरूरत नहीं। उसे राजधानी तक ही सीमित रखेंगे। अकेला विट्टियण्णा आ जाए, बस। शेष सभी दण्डनायक अपनी-अपनी जगह रहें।"
पट्टमहादेवी शासला : भाग चार :: 375