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"अप्पाजी, हम यहाँ इतने ही लोग हैं। तुमने यह बात यहाँ कही, ठीक है। हर्ज नहीं। यही बात यदि अब प्रकट हो जाए तो इसमें नमक-मिर्च लगाया जाएगा। तुम यह मत समझो कि मादिराजजी की राय को हमने मान्यता नहीं दी। महासन्निधान के पत्र का विषय भी कही-सुनी बातों पर आधारित है। ऐसा हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता है । इसलिए स्पष्ट आधार और प्रमाण जब तक न मिलें, तब तक हमें इस बारे में बोलना नहीं चाहिए।"
"आपके मन का समाधान करने के लिए तो स्वयं भगवान् को ही अवतरित होना पड़ेगा।"
"हाँ अप्पाजी, ऐसा निश्चित प्रमाण मिलने पर ही बोलना उचित है। अब इस बात को छोड़ो। सन्निधान के आदेश के अनुसार मायण-चट्टला को बुलवाकर उनको बात समझाकर, फिर कण्णमा को उनके साथ छोड़ देना उचित है। फिलहाल चिना किसी व्यवधान के सभी बातों की जानकारी सन्निधान को दे सकेंगे न?" शान्तलदेवी ने कहा।
गंगराज ने कहा, "जहाँ तक मुझे भास होता है, चालुक्य सेना हम पर धावा न करेगी। अन्न तो डाकरस, ब्रिट्टियण्णा आदि हमारे जबरदस्त दण्डनायक सभी तो वहाँ हैं। वे और सारी सेना वहीं रहे। महासन्निधान का यहाँ आना जरूरी है। यह अधूरी न्याय-विचारणा समिता के समय ही पूरी हो । यसमा जस्दा यह पूरी हो, उतना ही अच्छा ! इसलिए महासन्निधान से प्रार्थना करें कि वे यहाँ आएँ। अगर फिर उधर जाना चाहें तो जा सकते हैं। इस विजय पर अपनी खुशी प्रकट करते हुए मोटे तौर पर यहाँ की बातें बता दी जाएँ और इधर पधारने के लिए सन्निधान से विनती करते हुए पत्र भेजा जाए, यही मुझे ठीक जंचता है।"
मादिराज और नागिदेवाण्णा, दोनों ने गंगराज की राय का अनुमोदन किया। अन्त में ऐसा ही करने का निश्चय हुआ। चाविमय्या के हाथ पत्र भेजने का निर्णय लिया गया।
पट्टमहादेवी का पत्र पाते हो, दो दिन के भीतर महाराज रानियों, डाकरस दण्डनायक एवं जगदल सोमनाथ पण्डित को साथ लेकर राजधानी पहुँचे । महाराज चाहते थे कि इस अवसर पर अपना सारा परिवार एकत्र हो। इसलिए लौटते हुए रास्ते में कुमार बल्लाल, मारसिंगय्या, माचिकब्बे और बहू महादेवी, इन सबको साथ लेकर आगे बढ़े और रास्ते में ही कोवलालपुर से छोटे बिट्टिदेव को राजधानी बुलाते हुए पत्र भेजा।
___महाराज, रानियों, बड़े राजकुमार बल्लालदेव, महादेवी, सबका बड़े धूमधाम के साथ स्वागत हुआ। इसके दो ही दिनों बाद, छोटा विट्टिदेव भी सपरिवार शामिल हो गया। उनके आने के दो तीन दिन के बाद शान्तलदेवी ने इस न्याय-विवारणा के बारे में महाराज से बातचीत की।
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 373