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"छोटी राती और धर्मदर्शी को तुमने अभी तक यहीं रखा है ? मैंने आदेश भेजा था न कि उन्हें तलकाड भेज दें?"
"सन्निधान के आगे नालन न की गत बहामने निसीन नही सोची। सन्निधान को यह मालूम नहीं हुआ होगा कि यहाँ क्या सब गुजरा है, इसलिए ऐसा आदेश दिया होगा, यही हमें लगा। इसके अलावा, गुप्त हत्या के बारे में जो षड्यन्त्र की बात फैली है वह केवल मेरे बारे में नहीं, छोटी रानी के बारे में भी फैली है, यह सन्निधान जानते ही होंगे। उन्हें राजधानी में बुलवाकर रख लेने का सन्देश सन्निधान ने ही दिया था न? परन्तु यहाँ जो न्याय-विचारणा चली, उस समय इस न्याय-सभा में वे भी उपस्थित रहीं, यह अच्छा हुआ। इसलिए अब भी उपस्थित रहकर इस सम्बन्ध में पूरी जानकारी प्राप्त कर लें ताकि कहीं किसी प्रकार का उन्हें सन्देह न रह जाए-यह सोचकर उन्हें हमने नहीं भेजा।"
"परन्तु हमें ऐसे मौके पर अकस्मात् यह खबर मिली कि पट्टमहादेवी की गुप्ता हत्या का षड्यन्त्र तलकाडु की तरफ से हुआ है। उस मौके को जानोगी, और तब हम कितने परेशान रहे होंगे, इसकी कल्पना तुम स्वयं कर सकेगी।"
"उसे जानने के लिए मैं भी उत्सुक हूँ।" शान्तलदेवी ने कहा।
बिट्टिदेव ने बंकापुर के किले के दक्षिणी द्वार को खोल देने के प्रयत्न का सारा किस्सा सुनाया। और कहा, "उस एक काम को बिट्टियण्णा ने साधा, जिससे हमारी जीत हुई। इतना ही नहीं, वह जीत भी बहुत जल्दी मिल गयी। डाकरस जी ने बिट्टियण्णा को और ऊंचा पद देने की सलाह दी है।" इतना बताकर डाकरस से जो बातचीत हुई वह भी बतायी। "अब जो करना है, सो तुम्हारे हाथ है।...क्या अपने दामाद को छोड़कर उसको ऊँचा पद दे दिया जाए?" बिट्टिदेव ने पूछा।
"सन्निधान को मेरी मन:स्थिति मालूम है। मैं बाहुबली की भक्त हूँ। योग्यता को मान्यता देना मेरा स्वभाव है। मैं साधारण मानवी हूँ। मुझमें भी साधारण मानवों की तरह प्रेम, वात्सल्य, आशा-आकांक्षाएँ हैं, यह सहज है। परन्तु मैं उन्हें संयम से जीत सकती हूँ। सब तरह के स्वार्थ-त्याग के लिए मैं तैयार हूँ। पोय्सल-राज्य की प्रजा को सदा एक होकर जीना है। दलबन्दियाँ नहीं होनी चाहिए। जिस राज्य को स्वयं जीता और जिस चक्राधिपतित्व के स्वयं अधिकारी थे, उन्हीं बाहुबली स्वामी ने अपने से हारे बड़े भाई को सिंहासन सौंप दिया था। इससे बढ़कर त्याग और क्या हो सकता है ? वास्तव में डाकरस जी बहुत ऊँचे चरित्र के व्यक्ति हैं। उनकी सलाह मानने योग्य है।"
"ठीक; वैसा ही करेंगे। उसके आ जाने के बाद विशेष समारोह का आयोजन करेंगे।"
"मुझे लगता है कि इसके लिए समारोह के आयोजन की आवश्यकता नहीं, पदोन्नति के लिए समारोह होते रहें तो फिर हमें दूसरे काम करने का अवकाश ही नहीं
374:, पट्टमहादेवी शान्तला ; भाग चार