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को सफल न होने दूँ, यही विचार कर मैंने उनमें एक बनकर रहना चाहा। अगर मैं इस तरह का दिखावा नहीं करता तो इन लोगों का रहस्य मुझे मालूम ही नहीं पड़ता, सत्य प्रकट न होता । वास्तव में चोलराज विक्रमचोल अपने पिता के जैसे कट्टर नहीं हैं। बड़े सहिष्णु हैं। धर्म के विषय में हीन व्यवहार उन्हें पसन्द नहीं। बात ठीक न जँचने पर पीठ पीछे नहीं, आमने-सामने ही कहेंगे। पीठ पीछे कोई कार्य न करेंगे, नकलिए ऐसा नहीं चाहिए कि उन्होंने यह किया है। वास्तव में उस राजा को मालूम ही नहीं होगा कि ये लोग कौन हैं। परन्तु इन लोगों ने अच्छा जाल बिछाया है। उस आदियम को ही गुमराह करके, उससे धन संग्रह कर बड़े धनी बन गये हैं। चोल राज्य में अब वास्तव में इनका कोई अधिकार या पद नहीं है। यहीं कुछन-कुछ ऐसे कुतन्त्र चलाकर कुछ पद या स्थान पाने की आशा रखते हैं। इसलिए ये कुछ वर्षों से हमारे राज्य में घूमते-फिरते, कुछ इधर-उधर की बातों को जानते रहे हैं। उन्हीं इधर-उधर की झूठ-सच बातों के आधार पर एक योजना बनाकर उसे चला रहे हैं। जहाँ तक मैं समझता हूँ, यही उनके मनोगत विचार हैं। ये विचार उनके मन में क्यों उठे, इसका कारण मुझे मालूम नहीं। मैंने इसकी खोज का प्रयत्न भी नहीं किया। मैं सदा सतर्क रहा कि इन लोगों के मन में मेरे प्रति शंका उत्पन्न न हो। मैं अब जो बात बताता हूँ, वह अगर किसी के मन के लिए क्षोभकारक हो तो मुझे क्षमा करे। मैं एक साधारण निष्ठावान् प्रजा मात्र हूँ। ऊँचे स्थानों पर रहनेवालों को नाखुश कर, उनके असन्तोष का पात्र में बनना नहीं चाहता। मैं केवल समाचार संग्रह करने में लगा रहता था, इसलिए इनसे मिला हुआ था। ऐसा न मानें कि मैं असल में उनसे मिला हुआ हूँ, यही मेरी एक प्रार्थना है।
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बीच में ही मादिराज बोले, "इस भूमिका की जरूरत नहीं। स्पष्ट रूप से असली बात क्या है, कहो। न्याय पीठ में और राजमहल में समीक्षा की क्षमता है। यहाँ पूर्वाग्रहों के लिए स्थान नहीं। बात कितने ही ऊँचे स्तर के लोगों से सम्बन्धित हो, निडर होकर कहो, संकोच का कहीं कोई कारण नहीं।"
"जो आज्ञा महाराज ने अपनी इच्छा से धर्म परिवर्तन स्वीकार किया, तब पट्टमहादेवीजी को उनकी अनुवर्तिनी बनना चाहिए था, मगर उन्होंने अपने जैन-धर्म का त्याग नहीं किया, जिद की। इस कारण इन राज-दम्पतियों में पहले की-सी मधुरभावना और वह सरसता नहीं रही। लोगों के सामने अपनी इस स्थिति को प्रकट न होने देने के लिए दिखावा कर रहे हैं। यहाँ महाराज की अपेक्षा पट्टमहादेवी पर श्रद्धा रखनेवालों की संख्या अधिक है। महाराज भी व्यावहारिकता के कारण कमल के पत्ते पर के पानी का सा व्यवहार कर रहे हैं। अपनी सच्ची भावनाओं को प्रकट नहीं कर पा रहे हैं। अभी हाल में छोटी रानी का पुत्र हुआ, पुत्र-जन्म के उसी दिन एक युद्ध में महासन्निधान को विजय प्राप्त हुई जिसने उनके मन को प्रभावित किया है। उन्होंने
378 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार