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के चेहरे की ओर शायद नहीं देखा। देखा होता तो..."
मादिराज कह ही रहे थे कि बीच में ही विनयादित्य एकदम बोल उठा, "चेहरे पर भय के भाव स्पष्ट थे। भयग्रस्त आँखें इधर-उधर निहार रही थीं।"
"अप्पाजी..." शान्तलदेवी ने बेटे की ओर एक तरह से देखा।
इतने में मादिराज ने कहा, राजकुमार का कम कमोशन दर की बात मालूम पड़ती है। उनकी सूक्ष्म ग्रहणशक्ति वास्तव में प्रशंसनीय है।"
"तो आपकी राय ?" "स्पष्ट है। इस प्रसार में उनका भी हाथ रहा है।"
"कोई भी हो, बिना आधार के और साक्षी के उसे दण्डनीय नहीं ठहराया जा सकता। ऐसी दशा में धर्मदर्शी के विषय में केवल ऊहापोह या कल्पना के आधार पर कुछ कहना या करना उचित न होगा। इसलिए मादिराजजी, इस सम्बन्ध में अभी कुछ न बोलें। झूठ सदा ही झूठ है, सत्य सदा ही सस्य बना रहेगा। सचाई कभी न कभी प्रकट होगी। सचाई का पूरा पता चलने तक, जैसा प्रधानजी ने सुझाया, मौन रहना अच्छा होगा।" शान्तलदेवी ने कहा।
"तो प्रकारान्तर से मेरी बात भी विचार के योग्य है, यही न माँ?" विनयादित्य ने पूछा।
"विचार के योग्य कहने मात्र से यह नहीं सोच लेना चाहिए कि वह सत्य है। अप्पाजी, किसी व्यक्ति के प्रति जैसे विचार पहले से बन जाते हैं, उसी के अनुसार उनके मन में उसके प्रति नये भाव स्फुरित हुआ करते हैं। वह सत्य की खोज में मार्गदर्शक मात्र हो सकता है।" शान्तलदेवी ने कहा।
"कभी-कभी बच्चों की सूझ भी अत:प्रेरणा से ही होती है। इसलिए राजकुमार की बात भी मानने योग्य है । मादिराजजी के मन में भी इस तरह की शंका है। इस वजह से इसकी गहराई में जाने का प्रयत्न करना होगा।" गंगराज बोले।
__"ठीक है, फिलहाल तो चुप रहना ही है न!" कहती हुई शान्तलदेवी उठीं। बाकी जन भी उठ खड़े हुए। शान्तलदेवी ने घण्टी बजायी, नौकरानी ने द्वार खोला। द्वार पर रेविमय्या खड़ा था। उसे देखकर शान्तलदेवी रुकी। रेविमय्या का आना अनपेक्षित था, इसलिए पूछा, "क्या है रेविमय्या?"
"महासन्निधान के पास से पत्र आया है।" रेविमय्या ने कहा। "कहाँ है?"
"पत्रवाहक कहता है कि उसे सीधे स्वयं पट्टमहादेवीजी के हाथ में देने का आदेश है। वह किसी और को देने को राजी नहीं।"
"वह हमारा ही खुफिया है न?" "कौन हमास, कौन नहीं-यह कहना आजकल मुश्किल हो रहा है। सन्निधान
370 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार