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खोलकर वहीं खड़ा रहा।
पूछा।
शान्तलदेवी ने कहा, "तुम कुछ देर बाहर ही रहो।"
वह बाहर गया और द्वार बन्द कर दिया।
"अप्पाजी, सन्निधान के मन में क्या आतंक है, समझते हो ?" शान्तलदेवी ने
"माँ, आपके और सन्निधान के आतंकों में फर्क कहाँ है ?"
'मुझे तुम्हारा मतलब समझ में नहीं आया।"
"नहीं माँ, झूठी अफवाह फैलानेवालों से यदि डरते रहे तो हमारा किस्सा हो खतम हो जाएगा।"
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'अप्पाजी, यह तुम क्या कहते हो ? कुछ नासमझ जैसी बात कर रहे हो । " शान्तलदेवी ने कहा ।
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'आपने यह बहुत दिन पहले ही कहा था. इसलिए मेरी बात ऐसी ही होगी । माँ, राज्य के अन्दर के सारे समाचार राजधानी को पहले मालूम हों और फिर यहीं से युद्धक्षेत्र में पहुँचाने योग्य समाचार पहुँचाए जाएँ, यही न यहाँ की व्यवस्था थी ? अब क्या हुआ ? आपकी जानकारी के बिना, और यहाँ की व्यवस्था की देखभाल करनेवाले अधिकारियों को बिना बताये, रानी और राजकुमार की हत्या का षड्यन्त्र की खबर मात्र युद्ध-शिविर में क्यों कर पहुँची ? राजधानी से खबर न पहुँचे और कहीं अन्यत्र से समाचार वहाँ जाए, तो सन्निधान क्या सोचेंगे? आप ही कहिए। यह सन्निधान के मन को बिगाड़ने के लिए प्रयुक्त तरीका ही हैं न?"
"पूरे विषय को जाने बिना यों कल्पना करना नहीं चाहिए, अप्पाजी। पत्र पढ़ने के बाद तुमको यही लगता है कि सन्निधान परेशान हुए होंगे ? तब छोटी रानी को तुरन्त राजधानी बुलवाने का आदेश क्यों देते ? उन्हें मेरे संरक्षण में ही रहने को क्यों कहते जहाँ वे हैं, वहीं बुलवा लेते। नहीं तो उनकी सुरक्षा के लिए एक घुड़सवार टुकड़ी को ही भेज देते।"
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'जो सलाह दी है वह उससे ज्यादा सुरक्षात्मक हैं। एक लोकोक्ति है -- चोर के हाथ अमानत सौंप दें तो खतरा न रहेगा। यदि वे स्वयं कुछ करें तब भी यही माना जाएगा न कि आपने किया। मेरे मन में तो बहुत शंकाएँ उत्पन्न हो गयी हैं, माँ। खुलकर कहूँ ? उनके आने के पहले मैं इस जगह को छोड़कर अन्यत्र कहीं जाकर रहना पसन्द करता हूँ! आप मान जाएँ तो कोवलालपुर, छोटे अप्पाजी के पास, चला जाऊँगा।" 'मतलब यह हुआ कि मुझे अकेली छोड़कर जाने के लिए तुम तैयार हो, है
14.
न?"
"माँ, आप तो लाचार हैं। सबको निभाना है। जिन्हें मैं नहीं चाहता ऐसों के साथ रहना मुझसे नहीं होता । "
326 : पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार