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कंकड़ पैर में चुभ जाएँगे।"
" मेरे लिए वहाँ एक आसन बनवाया था न ?”
" इस बार महासन्निधान के युद्धक्षेत्र में चले जाने के बाद मेरे कार्यागार में पट्टमहादेवीजी का पधारना हुआ ही नहीं। जब कभी आना हुआ तब सारा समय मन्दिर में ही व्यतीत हुआ। वह आसन किस दशा में है, उस ओर मेरा ध्यान ही नहीं रहा । " 'क्यों, दूसरे लोग उस आसन का उपयोग नहीं कर रहे हैं ?"
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'ऐसा कहीं हो सकता है ? सन्निधान के बैठने के आसन पर दूसरों का बैठना उचित होगा ?"
" तो फिर ?"
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'थोड़ी देर सन्निधान यहाँ सुस्ता लें तो वहाँ पैर धरने के लिए स्थान बनवा दूँ।' "चलिए तो दखेंगे। वहाँ बैठना यदि नहीं हो सकेगा तो आपके रेखाचित्र के साथ इधर आ जाएँगे।" यों कहती हुई शान्तलदेवी आगे बढ़ीं। स्थपति हरीश ने साथी शिल्पी को इशारे से बताया कि जाकर स्थान साफ करे, और पट्टमहादेवी के साथ आगे बढ़ गया।
पट्टमहादेवीजी के वहाँ पहुँचते-पहुँचते आसन पर की धूल झाड़-पांकर क कर दी गयी थी। धूल के कारण वह आसन कुछ मैला मैला-सा ही लगता था । उन्होंने अन्दर का फैलाव देखा। पत्थर कंकड़ कहीं पैर में चुभ न जाएँ, इस तरह धीरे-धीरे और सतर्कता से कदम रखती हुई आसन तक गयीं और उस पर बैठ गयीं । हरीश ने रेखाचित्रों का पुलिन्दा उनके सामने बढ़ा दिया ।
उन्होंने बहुत बारीकी से ध्यानपूर्वक देखा, और कहा, "देखिए, उत्तर द्वार के उत्तर-पूर्व के कोने में समुद्रमन्थन का चित्र रहे। परन्तु पूर्व की तरफ उसका चेहरा रहे। शान्तलेश्वर की उत्तर की ओर वाली दीवार पर बलि - वामन की मूर्ति हो । शिव-विष्णु की जोड़ी इस युगल मन्दिरों के बीच आ जाए तो वह सांकेतिक होगा। शान्तलेश्वर मन्दिर के दक्षिण-पूर्व के हिस्से में शिव की मूर्ति हो, और उसके ठीक सामने होय्सलेश्वर ( पोय्सलेश्वर) मन्दिर के उत्तर-पूर्व भाग में विष्णु की मूर्ति हो । दक्षिण-पश्चिम में भैरव - मोहिनी- भस्मासुर, सरस्वती शिव की नृत्य-भंगिमा की मूर्तियाँ और वराहमहिषासुरमर्दिनी की मूर्तियों हों। पश्चिम की ओर प्रह्लाद नरसिंह, राम-रावण, द्रौपदीदुश्शासन, त्रिविक्रम की मूर्तियाँ आपने रेखाचित्र में दिखायी हैं, ये सब एक ही तरह की सांकेतिक मूर्तियाँ हैं। ये सब एक साथ रहें तो भी अर्थपूर्ण रहेंगी, इन्हें रहने दें। और छुट-पुट परिवर्तन आपको जैसा ठीक लगे, कर लें। अब मैंने जो परिवर्तन सुझाये उससे सात - आठ मूर्तियों को स्थानान्तरित करना होगा। आपके रेखाचित्र में दक्षिणपूर्व और उत्तर- पूर्व की ओर तथा पश्चिमोत्तर और दक्षिण-पश्चिम में दिखाई गयो मूर्तियों को स्थानान्तरित करना होगा। वहाँ की मूर्तियों इधर और इधर की उधर होंगी।"
पट्टमहादेश्री शान्तला : भाग चार 329