________________
"एक बार राजमहल में नौकरी करने लगो तो कुछ बोलने की स्वतन्त्रता नहीं रह जाती। पोय्सल कवि हमारे यहाँ आये हैं। "
"अच्छा! क्यों आये ?"
"मालूम नहीं सुना है कि बड़े बुद्धिमान् हैं। सुनते हैं, उन्होंने हमारे प्रभु से कहा कि एक ही प्रदेश के लोगों में आपसी द्वेष अच्छा नहीं सुनते ही प्रभु को क्रोध आ 'गया। भाषा एक है ठीक है, पर देश एक कैसे ? उत्तर में उन्होंने कहा, 'महाराज, कृपया सुनें। मैं सरस्वती का भक्त हूँ। मेरी सरस्वती कन्नड़ है। मेरी सरस्वती जहाँ व्यवहृत है वह सारा प्रदेश मेरे लिए एक ही देश है जहाँ मेरे काव्य को समझनेवाले न हों, वह मेरे लिए पराया देश है।' इसका उत्तर प्रभु ने इस तरह दिया, 'वह गृह के इष्टदेव की तरह है; उसे आप अपने लिए रखिए। हमारे सामने फिर ऐसी बात न छेड़ें। पिरियरसी ने कहा, इसलिए हमने आपको अपने राज्य में स्थान दिया है।' यों जवाब सुनकर उस सरस्वती पुत्र का मुँह बन्द ही हो गया। "
"यह तो राजा का दुराग्रह है। *
दूसरे पहरेदार ने उसके मुँह पर हाथ रखकर कहा, "बस बन्द करो। ज्यादा नको मत।"
44
'लगता है, इस दिन आस
से किसी ने भी इस ओर ध्यान नहीं दिया । "
"हम जोर से चिल्ला-चिल्लाकर तो बातचीत नहीं कर रहे हैं। बहुत हुआ तो आवाज दस बाँस की दूरी तक पहुँची होगी।"
"बातचीत करनेवालों को यह पता नहीं लगता कि उनकी आवाज कितनी दूर तक पहुँच रही है।"
ठीक इसी समय हँसने की-सी आवाज सुनाई पड़ी। अचरज की बात यह कि वह आवाज किसी औरत की थी। दोनों पहरेदारों ने चकित होकर एक-दूसरे को देखा । वहाँ मौन छा गया। दोनों पहरेवालों ने थोड़ी देर चुप्पी साध ली। फिर उनमें से एक ने धीमी आवाज में कहा, "रे! ये पहरेवाले कहीं से किसी औरत को किले पर चढ़ा लाये हैं।"
के इन जोराने पर भी द्वारों में
+4
'हो सकता है, चलो चलकर देखें।" दूसरा बोला।
+1
'उसे क्या देखना ? चलो लौट चलें।"
"
'ऐसा नहीं। बात को ठीक तरह से समझकर, यह खबर बड़े अधिकारी को देनी भी होगी न ?"
"चाहो तो तुम हो आओ। मैं नहीं जाऊँगा।"
""नहीं, भाई ! इन्हें क्या काम सौंपा था, और ये अब किस तरह का काम कर रहे हैं? ऐसा ही करेंगे तो हमारे महाराज की सुरक्षा की कोई आशा नहीं। इसलिए
पट्टमहादेवी शान्तला भाग चार 365