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कर रखा है। द्वार खुल जाए तो बाद को तो सीधा सामना किया जा सकता है।"
__ "कहता है कि 'अभी कितने मरे, कुछ हिसाब मालूम है? कुछ न करके जान देने से कुछ करके जान देना अच्छा है। मैं स्वयं इस सेना की टुकड़ी का नेतृत्व करूंगा।"
"उत्साह तो सराहनीय है। नेतृत्व कोई करे। आपकी राय क्या है उसको इस सलाह पर?"
"जैसा मैंने पहले ही निवेदन किया, कल आकस्मिक प्रतिकल परिस्थितियों की सम्भावना होते हुए भी प्रयत्न करका नाक ही प्रत होता है।"
"उसे हमारे पास भेज दीजिए। हम बातचीत करेंगे।" बिट्टिदेव ने कहा। "जो आज्ञा" कहकर डाकरस दण्डनायक चले गये।
रानी बम्मलदेवी, जो अन्दर थी, बाहर आयी और बिट्टिदेव के पास आकर बैठ गयी। बोली, "सनिधान स्वीकार करें तो मैं एक सैनिक टुकड़ी की अगुआ बनूंगी।"
"क्यों, जीवन से कब गयी?" "सन्निधान को भी मालूम है।" "क्या?" "यही कि ऊब जाने का क्या कारण है।" "ओफ, बड़ी और छोटी रानियों पुत्रवती हैं। बीच वाली नहीं हुई, इसलिए?" "हम छोटी रानी की तरह ईर्ष्या करनेवाली नहीं, यह बात सन्निधान जानते हैं।" "तो इस तरह ऊब जाने का क्या कारण है ?"
"इस बार के इस आक्रमण में मेरा भी राजलदेवी बहन की तरह खाली खापीकर बैठे रहना ही हो रहा है। इस तरह घसीटनेवाले युद्ध में कुछ चेतना के आने पर, कुछ-न-कुछ करते रहने का मौका मिलेगा, यही मेरा विचार था परन्तु..."
"हमारी ही दशा ऐसी हो गयी है। इस तरह से बेकार समय गंवाना तो हमें भी पसन्द नहीं।
"दण्डनायकों की संख्या ज्यादा है, उसमें भी युवकों का प्रबल जत्था है। इस वजह से हमें आगे बढ़ने का मौका ही नहीं मिल रहा है ! सन्निधान अगर अनुमति नहीं देते हों तो मुझे आसन्दी ही भेज दीजिए।"
___ "पट्टमहादेवी को पत्र भेजकर, उनकी स्वीकृति मिलने पर जरूर जा सकती हैं।"
"उन्हें पत्र भेजेंगे तो वे स्वयं ही यहाँ आ जाएंगी।" "क्यों?"
"युद्ध-शिविर में जब सन्निधान हों तब मैं या यह, दोनों में से किसी एक को । साथ रहना ही चाहिए, यह हमने निश्चय किया है।"
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356 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार
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