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'ऐसा कहीं हो सकता है? आपको इस काम में प्रवेश नहीं करना चाहिए। यह
सब हम युवकों का काम है।"
" ठीक कहा, बिट्टी ।"
"तो क्या मैं यही समझें कि महादण्डनायकजी को मैंने जो कार्यक्रम बताया, उसे सनिधान की स्वीकृति मिल गयी है ?"
"नहीं बिट्टी, तुम्हारी माँ ने तुमको मेरी माँ की गोद में जब डाल दिया था, तब माँ ने जो वचन दिया उसका आजीवन हमें पालन करना है।"
" तो मुझे जो दण्डनायक का पद दिया, वह एक अलंकर मात्र है ?"
"ऐसा नहीं बिट्टी, वास्तव में तुमने युद्ध-तन्त्र में अपनी कुशलता और चातुर्य दिखाकर महादण्डनायक का स्नेह प्राप्त कर लिया है। ऐसी दशा में दण्डनायक का यह पद तुम्हारे लिए अलंकार मात्र नहीं। महादण्डनायकजी के स्नेह पात्र बनने से ज्यादा इसका प्रमाण और क्या हो सकता है ? *
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" तो अब माँ के वचन की बात क्यों ? जो कार्य मैं करने जा रहा हूँ इसमें प्राणों का खतरा ज्यादा है, इसी भय से न?"
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'बिट्टी, एक बात समझ रखो। सेना में भर्ती होना, युद्धक्षेत्र में जाना, इसका मतलब ही मृत्यु को गले लगाना है, यह जानी-मानी बात है। परन्तु कुछ मौकों पर कुछ लोगों के प्राप्ण आगे नहीं कर सकते, यह बात मालूम है न?"
"मालूम है।"
"ऐसा क्यों ?"
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'ऐसों का मार्गदर्शन सेना को सदा मिलता रहना चाहिए।"
" ठीक! इस समय इस काम के लिए तुमको ही अगुआ होना चाहिए ?" "हाँ, योजना मेरी है। मुझे ही आगे रहकर इस कार्य को निभाना होगा।" "तुमको ही वहाँ क्यों रहना होगा सो हमारी समझ में नहीं आ रहा है। क्यों ? बताओ तो?"
"मैं अभी कुछ नहीं कहता। फिलहाल सन्निधान मुझे अनुमति दे दें।" "यही बात है तो हम भी तुम्हारे साथ चलेंगे। रानीजी ने जैसा कहा, अब हम भी बेकार बैठे-बैठे ऊन उठे हैं। तुम्हारे कार्य निर्वहण की रीति को हमें अपनी आँखों से देखना चाहिए।"
*" मतलब यह कि दुश्मन के हाथ अपना राज्य सौंप दें, यही सलाह हुई ?" "यदि हम युद्धक्षेत्र में जाने का निर्णय कर लें तो तुम रोक सकोगे ?" "सन्निधान को रोक सकने की ताकत मुझमें नहीं है। तो मुझ पर जो विश्वास रहा है वह अब नहीं रहा, यह समझैं न?"
" तो यह जिद हुई।"
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार 359